Kunti's Devotion: दास्यमिश्रित वात्सल्य भक्ति का अनुपम उदाहरण | Kunti Bhakti in Bhagavatam

Sooraj Krishna Shastri
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Kunti's Devotion: दास्यमिश्रित वात्सल्य भक्ति का अनुपम उदाहरण | Kunti Bhakti in Bhagavatam

 श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उत्तरा के गर्भ को नष्ट करने वाले ब्रह्मास्त्र का निवारण किया। परीक्षित की रक्षा करने के बाद वे द्वारिका पधारने को तैयार हुए तो कुन्ती का दिल भर आया उनकी अभिलाषा है कि चौबीस घंटे मे श्रीकृष्ण को निहारा करुँ, अतः कुन्ती उनके मार्ग मे खड़ी हो गयी श्रीकृष्ण रथ से उतरे तो कुन्ती उनका वंदन करने लगी, वंदन से प्रभू बन्धन में आते हैं, वंदन के समय अपने सारे पापों को याद करने से हृदय दीन और नम्र होगा। 

कुन्ती मर्यादा भक्ति है, साधन भक्ति है, यशोदा पुष्टि भक्ति है, यशोदा का सारा व्यवहार भक्तिरुप था, प्रेम लक्षणा भक्ति में व्यवहार और भक्ति में भेद नही रहता, वैष्णव की क्रियाएँ भक्ति ही बन जाती है।

 

Kunti's Devotion: दास्यमिश्रित वात्सल्य भक्ति का अनुपम उदाहरण | Kunti Bhakti in Bhagavatam
Kunti's Devotion: दास्यमिश्रित वात्सल्य भक्ति का अनुपम उदाहरण | Kunti Bhakti in Bhagavatam

प्रथम मर्यादा भक्ति आती है, उसके बाद पुष्टि भक्ति। मर्यादा भक्ति साधन है सो वह आरम्भ में आती है। पुष्टि भक्ति साध्य है अतः वह अन्त मे आती है। कुन्ती की भक्ति दास्यमिश्रित वात्सल्य भक्ति है।

हनुमान जी भक्ति दास्यभक्ति है,वे दास्यभक्ति के आचार्य है,दास्यभाव से हृदय दीन बनता है, दास्यभक्ति मे दृष्टि चरणों में स्थिर करनी होती है, बिना भाव के भक्ति सिद्ध नहीं हो सकती है, कुन्ती वात्सल्य भाव से श्रीकृष्ण का मुख निहारती है, चरण दर्शन से तृप्ति नहीं हुई सो मुख निहारते हुए स्तुति करती हैं, कुन्ती भगवान की बुआ थीं, अतः रिश्ते में और अवस्था में बड़ी थीं तो उन्होंने क्यों नमस्कार किया?

समाधान- 

    नमस्ये पुरुषं त्वाद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम्।

    अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवस्थितम्।। 

आप प्रकृति से पर आद्यपुरुष हैं, आपको नमस्कार है; क्योंकि आप ईश्वर हैं (प्रकृति के नियन्ता हैं) और परिपूर्ण होने से सकल जीवों के भीतर और बाहर व्याप्त हैं तथापि आपको कोई नहीं देख सकता है। 

इसका हेतु कहती हैं-

   मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षजमव्ययम्। 

   न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरो यथा।। 

 आप मायारूप परदे से ढके हुए हैं, इन्द्रियों से नहीं जाने जाते हैं, इस कारण अपरिच्छिन्न हैं। जिस प्रकार साधारण पुरुष बहुरूपियों के स्वरूपों को नहीं पहचान सकते हैं कि वे एक ही व्यक्ति के हैं- या भिन्न-भिन्न व्यक्ति के। वैसे ही देहाभिमानी पुरुष आपको नहीं देख सकते। अतः मै भक्तियोग को न जानने वाली मूढ नारी केवल आपको प्रणाम करती हूँँ 

तथा  परमहंसानां   मुनीनाममलात्मनाम्।

भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येमहि स्त्रियः।। 

तथा आत्मानात्म विचार करने वाले मननशील और रागादि से निवृत्त पुरुष भी अपनी अलौकिक महिमा से आपको नहीं देख सकते हैं। (जब उनकी यह दशा है) तो भक्तियोग का आचरण करने के लिए या भक्तियोग का स्थापन करने के लिए अवतीर्ण हुए आपको हम स्त्रियाँ कैसे जान सकती हैं। 

कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च।

नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः।। 

ज्ञान और भक्तियोग करने में अपनी अशक्ति बतलाकर केवल नमस्कार ही करती हैं- आप कृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्दगोपकुमार, गोविन्द को नमस्कार है। 

"नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमालिने।

नमः पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजाड़्घ्रये।।" 

जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है जिन्होंने कमलों की माला धारण की है, जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और कोमल है और जिनके चरणों में कमल चिह्न है ऐसे हे कृष्ण आपको बार बार वंदन है। 

प्रभू के सभी अंगो की उपमा कमल से दी गयी है ---

    "नवकंज लोचन ,कंजमुख करकंजपद कंजारुणम्" 

अब यह कहती हैं कि आपकी मेरे ऊपर अपनी माता से भी अधिक प्रीति है, क्योंकि--

यथा हृषीकेश खलेन देवकी 

                कंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता।

विमोचिताहं च सहात्मजा विभो

                  त्वयैव नाथेन मुहुर्विपदग्णात्।। 

 हे हृषीकेश! आपने जिस प्रकार दुष्ट कंस के बन्दीगृह में पुत्रशोक से चिरसन्तप्त देवकी को विपत्ति से छुड़ाया, उसी प्रकार हे विभो! पुत्रों के साथ मेरी आप ही ने बार -बार विपत्तियों से रक्षा की है, आगे अपनी विपत्तियों को गिनाते हुए कहती हैं ---

विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शनाद-

                 सत्सभाया वनवासकृच्छ्रतः।

मृधे मृधेऽनेकमहारथास्रतो 

               द्रौण्यस्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षितः।। 

हे हरे! दुर्योधन द्वारा खिलाये विष से, लाह के घर में लगी हुई अग्नि से, हिडम्बादि राक्षसों के भयानक दर्शन से, द्यूतस्थान से, वनवास के दुखों से, प्रत्येक युद्ध में भीष्म आदि के अस्त्रों से और अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से आपने सदा हमारी रक्षा की है। 

आगे कहती हैं कि संपत्तियाँ तो मोक्षमार्ग में बाधा डालती हैं ---

जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान्। 

नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम्।। 

जिसका मद उत्तम कुल में जन्म लेने से, ऐश्वर्य से, विद्या से और संपत्ति से बढ़ गया है, वह पुरुष धन आदि में आसक्त न रहने वाले पुरुषों को प्रत्यक्ष दर्शन देने वाले आपके राम, कृष्ण, गोविन्दादि नामों का उच्चारण नहीं कर सकता।   

नमोऽकिञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये। 

आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नमः।। 

जिसके अकिञ्चन (भक्त) ही सर्वस्व हैं, जिनकी धर्म, अर्थ और काम-विषयिणी वृत्तियाँ निवृत्त हो गयी हैं, जो आत्मा में रमण करने वाले हैं, जो रागादि दोषों से रहित हैं और कैवल्यपद (मोक्ष) के देने को समर्थ हैं, ऐसे आपको मैं नमस्कार करती हूँ। 

शंका- मैं तो देवकी का पुत्र हूँ, इस प्रकार मेरी स्तुति क्यों करती हो, इसका समाधान करते हुए कहती हैं - 

मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम्।

समं चरन्तं सर्वत्र  भूतानां यन्मिथः कलिः।। 

मैं आपको कालरूप समझती हूँ, देवकी का पुत्र नहीं समझती क्योंकि आप सबके नियन्ता, आदि अंत रहित, विभु, सर्वत्र समभाव रखने वाले हैं (मैं तो अर्जुन का सारथी हूँ मुझ में समभाव कैसे बन सकता है?

समाधान-  प्राणियों में जो कलह होता है वह उनकी विपरीत बुद्धि से होता है, उसका आप से कोई संबंध नहीं है--

न वेद कश्चिद्भगवंश्चिकीर्षितं

               तवेहमानस्य   नृणां  विडम्बनम्।

न यस्य कश्चिद्दयितोऽस्ति कर्हिचिद्-

               द्वेष्यश्च यस्मिन्विषमा मतिर्नृणाम्।। 

हे भगवान! आपका कोई प्रिय या शत्रु नहीं है इससे मनुष्यों में आपकी विषम बुद्धि नहीं है (अर्थात आप पाण्डवों के मित्रों पर अनुग्रह और शत्रुओं का निग्रह नहीं करते, अवतार लेकर मनुष्यों के अनुसार आपके कर्म करने पर भी यह समझ में नहीं आता कि आपके मन में क्या करने की इच्छा है। 

जन्म कर्म च विश्वात्मन्नजस्याकर्त्तुरात्मनः।

तिर्यङ्नृषिषु यादस्सु तदत्यन्तविडम्बनम्।। 

हे विश्वात्मन! सबके आत्मा, अज और अकर्ता आपका पशुओं में वाराहादि रूप से, मनुष्यों में रामादि रूप से, ऋषियों में वामनादि रूप से, जलचरों में मत्स्यादि रूप से जन्म लेना और तत्संबंधी कर्म करना विडम्बना मात्र ही तो है, अर्थात आपका शुद्ध स्वरूप आत्मा है और कर्म केवल लीलामात्र है।

गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम ताव-

           द्या ते दशाश्रुकलिलाञ्जनसभ्रमाक्षम्।

वक्त्रं निनीय भय भावनया स्थितस्य

              सा मां विमोहयति भीरपि यद्विभेति।। 

आपका मनुष्यों की नकल करना अत्यंत आश्चर्यजनक है आपने जिस समय यशोदा का अपराध किया था अर्थात दही के बर्तन फोड़ डाले थे और यशोदा ने आपको बाँधने के लिए रस्सी ली थी उस समय आपने जो अपनी दशा उसको दिखायी थी वह मुझे अत्यंत मोह में डालती है। यद्यपि आपसे भय भी डरता है तथापि उस समय भय के मारे आपने मुँह नीचा किया था और आपके नेत्र कज्जल सहित अश्रुजल से भरे व्याकुल हो रहे थे। 

आप दुर्जय हैं, क्योंकि जगत् को मोहित करते हैं इस हेतु आपके जन्म के अनेक कारण कहे जाते हैं, इसी विषय का चार श्लोकों से प्रतिपादन करती हैं-

केचिदाहुरजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्त्तये।

यदोः प्रियस्यान्ववाये मलयस्येव चन्दनम्।। 

कोई कहते हैं कि जैसे मलयगिरि की कीर्ति बढ़ाने के लिए चन्दन उत्पन्न होता है, वैसे ही अजन्मा होकर भी आपने पुण्यकीर्ति युधिष्ठिर का यश फैलाने के लिए यदु के वंश में जन्म लिया है। 

अपरे वसुदेवदस्य देवक्यां याचितोऽभ्यगात्। 

अजस्त्वमस्य  क्षेमाय  वधाय  च  सुरद्विषाम्।। 

दूसरे कहते हैं कि अजन्मा होकर भी आपने देवकी और वसुदेव जी की पूर्व प्रार्थना को पूर्ण करने के लिये, वसुदेव जी की पत्नी देवकी के गर्भ से जन्म लिया। 

भारावताराणायान्ये   भुवो   नाव  इवोदधौ।

सीदन्त्या भूरिभारेण जातो ह्यात्मभुवार्थितः।। 

कोई कहते हैं कि दैत्यों के अतिभार से समुद्र में डूबती हुई नाव के समान क्लेश पाती हुई पृथ्वी का भार हरने के लिए ब्रह्मा जी की प्रार्थना से भगवान ने अवतार लिया। (यह अवतार का प्रधान कारण प्रतीत होता है)। 

भवेऽस्मिन् क्लिश्यमानानामविद्याकामकर्मभिः।

श्रवणस्मरणार्हाणि     करिष्यन्निति      केचन।। 

और कोई दूसरे कहते हैं कि आप ऐसे चरित्र करने के लिए जन्म लेते हैं जिनका वे पुरुष श्रवण और स्मरण करें जो अविद्या काम कर्म से दुख पा रहे हैं,परमानन्द स्वरूप का अज्ञान अविद्या है उससे काम (देहाभिमान) होता है और तब मनुष्य शुभाशुभ कर्म करता है। 

श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः

             स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः।

त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं

                  भवप्रवाहोपरमं   पदाम्बुजम्।। 

जो पुरुष आपके चरित्रों का सर्वदा श्रवण, गान, कीर्तन, स्मरण और आदर करते हैं, वे ही भय के प्रवाह से (जन्म-मरण रूप प्रवाह से) बचाने वाले आपके चरण कमलों का शीघ्र दर्शन पाते हैं। 

आगे  चार श्लोकों द्वारा हस्तिनापुर से कभी न जाने की प्रार्थना करती हैं -- 

अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो

          जिहाससि स्वित्सुहृदोऽनुजीविनः।

येषां न चान्यद्भवतः पदाम्बुजा-

            त्परायणं राजसु योजितांहसाम्।। 

 हे प्रभो! हे भक्तकामद! आपकी ही कृपा से जीवित रहने वाले भक्तों को, जो राज्य छीन लेने के कारण झंझट में पड़े हैं और जिनको आपके चरण कमल से अन्य का भरोसा नहीं है, आप अभी मत छोड़िये। 

के वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पाण्डवाः।

भवतोऽदर्शनं    यर्हि   हृषीकाणामिवेशितुः।। 

यदि हमारे ऊपर आपका कृपाकटाक्ष न हो तो ख्याति और समृद्धि से प्रसिद्ध होकर भी पाण्डव यदुओं के सहित दीन ही हैं, जैसे कि इन्द्रियों के स्वामी जीव के देह से निकल जाने पर नेत्र आदि इन्द्रियाँ निरर्थक हो जाती हैं। 

नेयं  शोभिष्यते  तत्र  तथेदानीं  गदाधर।

त्वत्पदैरंकिता भाति स्वलक्षणविलक्षितैः।। 

हे गदाधर! इस समय यहाँ की भूमि आपके वज्र, अंकुशादि चरणचिह्नों से जैसी विलक्षण शोभा पा रही है, आपके द्वारका चले जाने पर वैसी शोभित नहीं होगी। 

इमे जनपदाः स्वृद्धाः सुपक्वौषधिवीरुधः।

वनाद्रिनद्युदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितैः।। 

आपके दर्शनमात्र से हमारे देश की व्रीहि- यवादिक औषधियाँ और द्राक्षादि लताएँ उत्तम प्रकार से हुई हैं। हमारे देश, वन, नदी और समुद्र सकल संपत्तियों से वृद्धि पा रहे हैं।

अथ विश्वेश विश्वात्मन्विश्वमूर्ते स्वकेषु मे।

स्नेहपाशमिमं छिन्धि दृढ़ पाण्डुषु वृष्णिषु।। 

हे विश्ववेश! हे विश्वात्मन्! हे विश्वमूर्ते! यादव और पाण्डवों के प्रति मेरे स्नेहरूपी दृढ़ पाश को काट डालिये। 

भाव यह है यदि आप द्वारका गये तो पाण्डवों को दुख होगा, यदि न गये तो यादवों को दुख होगा, इस कारण यह प्रार्थना है। 

त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत्।

रतिमुद्वहतादद्धा          गंगेवौघमुदन्वति।। 

हे मधुपते! जैसे गंगा जी सब रूकावटों को हटाती हुई समुद्र की ओर बहती जाती हैं, इसी प्रकार मेरी बुद्धि किसी दूसरे विषय में न लगकर निरन्तर अनन्य भाव से आपमें अखण्डित प्रीति करे। 

श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रु-

                     ग्राजन्यवंशदहनानपरवर्गवीर्य।

गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार

                    योगेश्वरखिलगुरोभगवन्नमस्ते।। 

हे श्रीकृष्ण! हे अर्जुन सखा! हे यादवों में श्रेष्ठ! हे पृथ्वी के भारभूत दुष्ट राजाओं के वंश को अग्नि के समान ध्वस्त करने वाले! हे अक्षीण प्रभाव! हे गोविन्द हे गौ, ब्राह्मण और देवताओं का दुख दूर करने के लिए अवतार धारण करने वाले! हे योगेश्वर! हे अखिलगुरो! हे भगवान! आपको नमस्कार है।

प्रतिदिन तीन बार भगवान की स्तुति करना चाहिए सुबह, दोपहर और रात को सोने से पहले, इसके अलावा सुख, दुःख और अन्तकाल में भी स्तुति करना है। 

अर्जुन दुःख में, कुन्ती सुख में स्तुति करती है, और भीष्म अन्तकाल में स्तुति करते हैं, "सुखावसाने, दुःखावसाने, देहावसने स्तुति करना चाहिए" हम अति सुख मे भगवान को भूल जाते है , जीव पर भगवान अनेक उपकार करते है किन्तु वह सब भूल जाता है, परमात्मा के उपकार भूलना नहीं चाहिए ।

कुन्ती कहती हैं - बिना जल के नदी की शोभा नहीं है, प्राण के बिना शरीर शोभा नहीं देता, कुंकुम का टीका न हो तो सौभाग्यवती स्त्री नहीं सुहाती,इसी प्रकार आपके विना पांडव भी नही सुहाते, नाथ आपसे ही हम सुखी है, गोपी गीत मे गोपियाँ भी भगवान के उपकार का स्मरण करती हैं --- 

"विषजलाप्ययाद् व्यालराक्षासाद्

                        वर्षमारुताद् वैद्युतानलात्" 

कुन्ती याद करती है कि जब भीम को दुर्योधन ने विष मिश्रित लड्डू खिलाये थे , उस समय आपने उसकी रक्षा की थी, लाक्षागृह से बचाया, मेरी द्रौपदी को जब दुःशासन भरी सभा वस्त्र खींचने लगा उस समय आपने उसकी रक्षा की ,जिसे भगवान ढकते है उसे कौन उघाड़ सकता है, जीव ईश्वर को कुछ भी नही दे सकता ,जगत का सब कुछ ईश्वर का ही है।

कुन्ती कहती है नाथ हमारा त्याग न करो आप द्वारिका जा रहे है किन्तु एक वरदान माँगने की इच्छा है वरदान देकर आप चले जाइए,कुन्ती जैसा वरदान न किसी ने माँगा है न कोई माँगेगा ----

   "विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो।

   भवतो  दर्शनं   यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्।।" 

हे जगदगुरु ! हमारे जीवन मे प्रतिक्षण विपदा आती रहे क्योकि विपदावस्था मे निश्चित ही आपके दर्शन होते रहेंगे, जिस दुःख मे नारायण का स्मरण हो वह सुख है,उसे दुःख कैसे कहें----

"सुख  के  माथे  सिल  परौ  हरी  हृदय  से  पीर।

बलिहारी वा दुःख की जो पल पल नाम जपाय।।"

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