नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥
मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव उसकी याचना करते हैं। वह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है॥
मनुष्य शरीर को धारण (प्राप्त) करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से भी नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारसमणि को हाथ से फेंक देते हैं और बदले में काँच के टुकड़े ले लेते हैं।
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नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥ नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी। ग्यान बिराग भगति सुभ देनी॥ |
संपूर्ण सृष्टि में मनुष्य शरीर से बढ़कर कोई और शरीर नहीं है। यह देह इसलिए विशेष नहीं कि यह अधिक बलवान है या बुद्धिमान, बल्कि इसलिए कि इसमें विचार करने, निर्णय लेने, आत्मचिंतन करने और स्वयं को बदलने की स्वतंत्रता है। और —
"जीव चराचर जाचत तेही"
समस्त स्थावर और जंगम जीव चाहे वे वृक्ष, लताएँ, पशु, पक्षी, कीट हों या देवता , सब इस मनुष्य जन्म की अभिलाषा रखते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि अन्य योनियाँ केवल कर्मफल भोगने की अवस्थाएँ हैं, जबकि मनुष्य देह ऐसी अवस्था है जिसमें अपने जीवन की दिशा को बदला जा सकता है, अपनी गति को ऊर्ध्वगामी किया जा सकता है। यह देह केवल जीवित रहने का माध्यम नहीं, बल्कि जागने का उपकरण है।
जग हट वाड़ा स्वाद ठग, माया वेसों लाइ।
राम चरन नीकों ग्रही, जिनि जाइ जनम ठगाई॥
यह संसार एक बड़ा बाजार है जिसमे इंद्रियो के स्वाद रूपी ठग हैं और माया रूपी वेश्या भी जीवको ठगने का प्रयास करती है। ऐसी अवस्था मे हे जीव! यदि तू दृढतापूर्वक ईश्वर के चरणो का सहारा लेगा तब तो ठीक है नही तो इस संसार ही बाजार से विषय-वासना और माया के द्वारा बिना ठगे बच नहीं सकते हो।
"नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी"
मनुष्य शरीर वह सीढ़ी है जो हमें तीन भिन्न दिशाओं में ले जा सकती है: नीचे की ओर जहाँ मोह, क्रोध, लोभ, हिंसा और अज्ञान हमें आत्मविनाश की ओर ले जाते हैं; मध्य दिशा - जहाँ सुख, सुविधा और भोग में डूबकर जीवन बीत जाता है पर आत्मा की उन्नति नहीं होती; और ऊपर की ओर - जहाँ आत्मज्ञान, नीति, करुणा और भक्ति के सहारे जीवन का परम उद्देश्य साकार होता है। मनुष्य देह की यही वह स्थिति है जहाँ से नीचे भी गिरा जा सकता है, और ऊपर भी उठाया जा सकता है। यह विकल्प और यह उत्तरदायित्व केवल मनुष्य को प्राप्त है।
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ।।
माया से वशीभूत सारे बद्धजीव इस संसार में शान्ति प्राप्त करने के लिए उत्सुक रहते हैं , किन्तु भगवद्गीता के इस अंश में वर्णित शान्ति के सूत्र को वे नहीं जानते । शान्ति का सबसे बड़ा सूत्र यही है कि भगवान् कृष्ण समस्त मानवीय कर्मों के भोक्ता हैं । मनुष्यों को चाहिए कि प्रत्येक वास्तु भगवान् की दिव्यसेवा में अर्पित कर दें क्योंकि वे ही समस्त लोकों तथा उनमें रहने वाले देवताओं के स्वामी हैं । उनसे बड़ा कोई नहीं है । वे बड़े बड़े देवता, शिव तथा ब्रह्मा से भी महान हैं ।
श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् भगवान् को —
"तमीश्वराणां परमं महेश्र्वरम्"
कहा गया है , माया के वशीभूत होकर सारे जीव सर्वत्र अपना प्रभुत्व जताना चाहते हैं, लेकिन वास्तविकता तो यही है कि सर्वत्र भगवान् की माया का प्रभुत्व है । भगवान् प्रकृति (माया) के स्वामी हैं और बद्धजीव प्रकृति के कठोर अनुशासन के अन्तर्गत हैं ।
कृष्णभावनामृत का यही अर्थ है , भगवान् कृष्ण परमेश्र्वर हैं तथा देवताओं सहित सारे जीव उनके आश्रित हैं । पूर्ण कृष्णभावनामृत में रहकर ही पूर्ण शान्ति प्राप्त की जा सकती है ।
"ग्यान बिराग भगति सुभ देनी"
यही इस देह का सर्वोच्च कार्य है। यदि यह शरीर आत्मज्ञान को जन्म दे, जिसमें व्यक्ति स्वयं के स्वरूप, संसार की गति और जीवन के सत्य को समझ सके; यदि यह देह वैराग्य उत्पन्न करे, जिसमें व्यक्ति संसार का उपभोग करते हुए उसमें आसक्त न हो; और यदि यह देह भक्ति उत्पन्न करे, जिसमें प्रेम, नम्रता और समर्पण के भाव हों , तो यही शरीर मुक्तिपथ बन जाता है। यह तीनों गुण, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति , केवल मनुष्य जीवन में ही पूर्ण रूप से विकसित हो सकते हैं।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।
हे कुन्तीपुत्र! मृत्यु के समय शरीर त्यागते समय मनुष्य जो कुछ भी स्मरण करता है, वह उसी चिन्तन में निरन्तर लीन रहकर उसी अवस्था को प्राप्त करता है।
मृत्यु के समय व्यक्ति के मन में जो भी विचार प्रबल रूप से हावी होते हैं, वही उसके अगले जन्म का निर्धारण करते हैं। हालाँकि, सभी को यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि मृत्यु के समय केवल ईश्वर का ध्यान करने से ही ईश्वर-साक्षात्कार हो सकता है। जब हम अपनी यात्रा की योजना बनाते हैं, तो इसके लिए पहले से सावधानीपूर्वक योजना और क्रियान्वयन की आवश्यकता होती है; हम अपना सामान पैक करने के बाद योजना नहीं बना सकते।"
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं।
अंत राम कहि आवत नाहीं॥
उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति बहुत प्रयास करके अपने पालतू तोते को सीताराम या राम राम कहना सिखा सकता है। लेकिन अगर कोई उस पर हमला कर दे, तो वह जो कुछ भी सीखा है उसे भूल जाता है और अपनी स्वाभाविक "टे-टे" की आवाज़ में चीखता है। इसी प्रकार, जीवन भर की आदतों से हम जो विचार-मार्ग बनाते हैं, मृत्यु के समय भी वही विचार स्वाभाविक रूप से हमारे मन में प्रवाहित होंगे। हम जीवन भर जिन बातों का निरंतर चिंतन और मनन करते हैं, वे हमारी दैनिक आदतों और संगति से प्रभावित होती हैं। इसलिए, स्वाभाविक है कि ये ही हमारे अंतिम विचारों को निर्धारित करती रहेंगी।
पुराणों में एक प्रतापी राजा भरत की कथा वर्णित है। उन्होंने ईश्वर प्राप्ति के लिए अपना राज-पाट त्याग दिया था और वन में तपस्वी जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक बार, वे ध्यानमग्न थे और उन्होंने एक हिरणी को पास की नदी में कूदते देखा। वह गर्भवती थी और एक हमलावर बाघ से बचकर भाग रही थी। भय के कारण, उसने बहते पानी में बच्चे को जन्म दे दिया। अपने नवजात शिशु को बचाने का कोई उपाय न पाकर वह नदी के उस पार चली गई। यह सब देखकर, भरत को नदी में बहते हुए हिरण के बच्चे पर दया आ गई। उन्होंने उस हिरण के बच्चे को बचाया और उसे अपनी कुटिया में ले गए। उन्होंने उसे बड़े स्नेह से पालना शुरू किया। हरी घास इकट्ठा करके उसे खिलाना, उसे गले लगाकर गर्म रखना और उसकी उछल-कूद देखना, भरत को बहुत आनंद देता था।
धीरे-धीरे, भरत का पूरा दिन उस मृगशिशु की देखभाल में व्यतीत होने लगा। उनका मन पूरी तरह से उसी के विचारों में लीन हो गया और ईश्वर से विमुख हो गया। अतः, जब वे मरने वाले थे, तब भी उन्हें केवल मृगशिशु की ही चिंता थी और वे प्रेमपूर्वक उसे पुकारते रहे। परिणामस्वरूप, अगले जन्म में राजा भरत ने मृग योनि में जन्म लिया। फिर भी, पूर्वजन्मों की साधना के कारण, मृग योनि में रहते हुए भी, उन्हें अपने पूर्वजन्म में की गई गलतियों का बोध था। अतः मृग योनि में रहते हुए भी, भरत ने अपना पूरा जीवन वन में ऋषियों के पवित्र आश्रमों के पास बिताया। और जब उनकी मृत्यु हुई, तो उन्हें पुनः मानव योनि प्राप्त हुई। इस बार, भरत ने अपना अवसर नहीं गंवाया और अपनी साधना पूरी की। अंततः, उन्हें ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त हुआ और वे महान ऋषि जड़भरत के नाम से विख्यात हुए।
"जनमत मरत दुसह दु:ख होई।"
मृत्यु एक अत्यंत कष्टदायक अनुभव है। इसलिए, यह स्वाभाविक है कि मन उन विचारों की ओर आकर्षित होता है जो व्यक्ति के अंतर्निहित स्वभाव का हिस्सा हैं। पुराणों के अनुसार, मृत्यु के समय ईश्वर का चिंतन करना अत्यंत कठिन है। इसलिए, मन द्वारा सदैव ईश्वर का चिंतन करने के लिए आवश्यक है कि हमारा आंतरिक स्वभाव ईश्वर के साथ एकाकार हो। हमारे मन और बुद्धि में निवास करने वाली चेतना ही हमारा आंतरिक स्वभाव है। और हम जिन विचारों का निरंतर चिंतन करते हैं, वे हमारे आंतरिक स्वभाव के अंग के रूप में प्रकट होते हैं। इसलिए, हमें अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में ईश्वर का स्मरण करने का अभ्यास करना चाहिए।
करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात ते सिल पर परत निशान।।
तभी हम ईश्वर-चेतन आंतरिक स्वभाव का विकास कर पाएँगे।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ।।
अपने शरीर से अपना कर्तव्य करो और अपने मन को मुझमें संलग्न रखो।" एक योद्धा के रूप में, अर्जुन को युद्ध करना ही होगा; यही उसका कर्तव्य है। हालाँकि, भगवान अर्जुन से कहते हैं कि युद्ध के बीच में भी, ईश्वर का स्मरण करना चाहिए। यही संदेश सभी के लिए है—चाहे वे किसान हों, इंजीनियर हों, डॉक्टर हों, छात्र हों, गृहिणी हों या कोई अन्य पेशेवर।
एक आदमी फोटो खिंचवाने गया। जब वह फोटो खिंचवाने बैठा तब फोटोग्राफर ने उससे कहा कि फोटो खिंचते समय हिलना मत और मुस्कराते रहना। जैसे ही फोटो खिंचने का समय आया उस आदमी की नाक पर एक मक्खी बैठ गयी। हाथ से मक्खी को भगाना ठीक न समझकर (कि कहीं फोटो में वैसा न आ जाय) उसने अपनी नाक को सिकोड़ा। ठीक इसी समय उसकी फोटो खिंच गयी। उस आदमी ने फोटोग्राफर से फोटो माँगी तो उसने कहा कि अभी फोटो को प्रत्यक्षरूप में आने में कुछ समय लगेगा आप अमुक दिन फोटो ले जाना। वह दिन आने पर फोटोग्राफर ने उसे फोटो दिखायी तो उसमें (अपनी नाक सिकोड़े हुए) भद्दे रूप को देखकर वह आदमी बहुत नाराज हुआ कि तुमने फोटो बिगाड़ दी फोटोग्राफर ने कहा कि इसमें मेरी क्या गलती है फोटो खिंचते समय आपने जैसी आकृति बनायी थी वैसी ही फोटो में आ गयी अब तो फोटो में परिवर्तन नहीं हो सकता। इसी तरह अन्तकाल में मनुष्य का जैसा चिन्तन होगा वैसी ही योनि उसको प्राप्त होगी।फोटो खिंचने का समय तो पहले से ही मालूम रहता है पर मृत्यु कब आ जाय -- इसका हमें कुछ पता नहीं रहता। इसलिये अपने स्वभाव चिन्तन को निर्मल बनाये रखते हुए हर समय सावधान रहना चाहिये और भगवानका नित्य निरन्तर स्मरण करते रहना चाहिये ।
सुमिरन की सुधि यों करो, ज्यों गागर पनिहार।
बोलत डोलत सुरति में, कहे कबीर विचार।।