हमारी-तुम्हारी Kahani : Moh-Maya se Mukti aur Bhaj Govindam ka Sandesh

Sooraj Krishna Shastri
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 प्रस्तुत कहानी अत्यंत शिक्षाप्रद है। मैं इसे यहां व्यवस्थित, विस्तृत तथा भावपूर्ण रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ ताकि इसका नैतिक संदेश और गहराई से समझा जा सके—


हमारी-तुम्हारी Kahani : Moh-Maya se Mukti aur Bhaj Govindam ka Sandesh

भूमिका

मानव जीवन एक सीमित समय का अनमोल अवसर है। जन्म से मृत्यु तक हम अनेक प्रकार के आकर्षणों, इच्छाओं और मोहजाल में उलझते रहते हैं। परंतु जब अंतिम समय समीप आता है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि संसार के सुख, वैभव और सम्पत्ति में से कोई भी वस्तु हमारे साथ नहीं जा सकती। इसी शाश्वत सत्य को एक छोटी-सी कथा के माध्यम से बड़े ही मार्मिक ढंग से समझाया गया है।


कथा प्रारंभ

एक धनाढ्य व्यक्ति था। उसके पास धन-वैभव, प्रतिष्ठा और ऐश्वर्य की कोई कमी नहीं थी। परंतु कालचक्र की गति बड़ी विचित्र है—धीरे-धीरे उसकी सारी संपत्ति नष्ट हो गई और वह निर्धन हो गया।

उसकी पत्नी ने कहा –
"सम्पन्नता के समय तो आपका राजा से गहरा परिचय था। अब विपत्ति में उनसे सहायता क्यों न मांगी जाए? क्या वे हमारे मित्र नहीं हैं? जैसे भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा की सहायता की थी, वैसे ही वे भी हमारी मदद अवश्य करेंगे।"

पत्नी के आग्रह पर वह व्यक्ति राजा के महल पहुँचा।


राजा का स्वागत

द्वारपाल ने राजा से निवेदन किया –
"महाराज! एक निर्धन व्यक्ति आपसे मिलना चाहता है और स्वयं को आपका मित्र बताता है।"

राजा ने जैसे ही अपने मित्र का नाम सुना, वे प्रसन्न होकर दौड़े चले आए। मित्र की दयनीय अवस्था देखकर उनकी आँखें भर आईं। उन्होंने कहा –
"मित्र! कहो, मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ?" 

हमारी-तुम्हारी Kahani : Moh-Maya se Mukti aur Bhaj Govindam ka Sandesh
हमारी-तुम्हारी Kahani : Moh-Maya se Mukti aur Bhaj Govindam ka Sandesh



पहला अवसर – रत्नों का खजाना

राजा ने कहा –
"चलो, मैं तुम्हें अपने रत्नों के खजाने में ले चलता हूँ। वहाँ से जितना चाहो, भर लो। परंतु ध्यान रहे—केवल तीन घंटे का समय मिलेगा। समय सीमा पार होते ही तुम्हें खाली हाथ बाहर आना पड़ेगा।"

वह व्यक्ति खजाने में पहुँचा। चारों ओर चमकते रत्न देखकर उसकी आँखें चौंधिया गईं। उसने जेबें भर-भरकर रत्न रख लिए। परंतु जब दरवाजे से बाहर निकलने लगा, तो उसने देखा कि वहाँ रत्नों से बने खिलौने रखे थे, जो बटन दबाने पर तरह-तरह के खेल दिखाते थे।

उसने सोचा – “अभी तो समय है, थोड़ा खेल भी लिया जाए।”

वह खेल में इतना मग्न हो गया कि समय का भान ही न रहा। तभी घंटी बजी—समय समाप्त हो गया। और वह खाली हाथ बाहर निकाला गया।


दूसरा अवसर – स्वर्ण का खजाना

राजा ने कहा –
"कोई बात नहीं मित्र, चलो अब तुम्हें स्वर्ण के खजाने में ले चलता हूँ। पर समय का ध्यान रखना।"

वह स्वर्ण-भंडार में पहुँचा। शीघ्रता से अपने थैले में सोना भरने लगा। तभी उसकी दृष्टि सोने की काठी से सजे हुए घोड़े पर पड़ी।

उसने सोचा – “यह वही घोड़ा है, जिस पर बैठकर मैं राजा के साथ सैर किया करता था।”

वह घोड़े पर बैठ गया और पुराने दिनों की स्मृति में डूबकर सवारी का आनंद लेने लगा। परन्तु तभी फिर घंटी बजी—समय समाप्त! और वह पुनः खाली हाथ बाहर आ गया।


तीसरा अवसर – रजत का खजाना

राजा ने मुस्कराते हुए कहा –
"मित्र, निराश मत हो। इस बार तुम्हें चाँदी का खजाना देता हूँ।"

वह चाँदी के कक्ष में गया और ढोल में चाँदी भरने लगा। उसने निश्चय किया कि अब वह गलती नहीं करेगा। परंतु दरवाजे पर चाँदी का एक छल्ला लटक रहा था। साथ में चेतावनी लिखी थी—

"इसे छूना मत, उलझने का भय है। यदि उलझ जाओ तो दोनों हाथों से सुलझाने का प्रयास न करना।"

उसने सोचा – “बड़ा कीमती होगा तभी तो चेतावनी लिखी है।” और उसने छल्ला छू लिया।

क्षणभर में वह उलझ गया। पहले उसने एक हाथ से छुड़ाने की कोशिश की, फिर दोनों हाथों से। पर उलझन बढ़ती गई। और फिर घंटी बज गई—समय समाप्त! वह फिर खाली हाथ बाहर आ गया।


चौथा अवसर – तांबे का खजाना

राजा ने कहा –
"मित्र, अंतिम अवसर! अब तांबे के खजाने में जाओ।"

वह मन ही मन सोचने लगा –
"मैं तो रत्न लेने आया था, अब तांबे तक पहुँच गया।"

उसने कई बोरे तांबे के भर डाले। भरते-भरते थक गया। तभी उसने देखा कि पास ही एक पलंग बिछा है। सोचा – “थोड़ी देर आराम कर लूँ, फिर काम करूँगा।”

वह लेटते ही नींद में सो गया। और घंटी बजी—समय समाप्त! वह एक बार फिर खाली हाथ बाहर आ गया।


निष्कर्ष

राजा ने कहा –
"मित्र, यह संसार का नियम है। अवसर सभी को मिलते हैं, परंतु मोह, आकर्षण और असावधानी के कारण मनुष्य उन्हें खो देता है।"


जीवन से सम्बन्ध

ठीक इसी प्रकार—

  • बचपन हम खिलौनों में खोकर गँवा देते हैं।
  • युवा अवस्था में आकर्षण और भोग-विलास में डूब जाते हैं।
  • गृहस्थ जीवन उलझनों और मोह-माया में फँसकर बीत जाता है।
  • बुढ़ापे में शरीर थक जाता है और शेष समय केवल पलंग पर लेटने में निकल जाता है।

और अंततः मृत्यु की घंटी बज जाती है—तब हम खाली हाथ ही इस संसार से विदा हो जाते हैं।


संतों का संदेश

इसीलिए संत महापुरुष बार-बार कहते हैं—

भज गोविंदं भज गोविंदं भज गोविंदं मूढमते।
सम्प्राप्ते सन्निहिते काले नहि नहि रक्षति डुकृञ् करणे ॥

अर्थात –
"मूर्ख! श्रीगोविंद का भजन कर। जब मृत्यु समीप आ जाएगी, तब व्याकरण का ज्ञान या सांसारिक विद्या तुझे नहीं बचा पाएगी। केवल ईश्वर-स्मरण और भक्ति ही तेरा सच्चा साथी है।"


उपसंहार

यह कथा हमें यह सिखाती है कि जीवन की हर अवस्था का सही उपयोग करना चाहिए।

  • बचपन में शिक्षा और संस्कार,
  • युवावस्था में आत्म-संयम और साधना,
  • गृहस्थ जीवन में संतुलन और सेवा,
  • बुढ़ापे में पूर्ण भक्ति और ईश्वर-स्मरण—

इन्हीं के सहारे मनुष्य जीवन सफल होता है।

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