प्रस्तुत पाठ श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध की लीलाओं पर आधारित एक अत्यंत गूढ़, तात्त्विक और रसपूर्ण विमर्श है, जो श्रीकृष्ण की लीलाओं विशेषतः रासलीला और धर्म-परंपरा के विरुद्ध प्रतीत होने वाले उनके व्यवहार के रहस्यमय पक्ष को उजागर करता है।
Kya God भी करते हैं Adharm? जानिए Shukdev-Parikshit Samvad का गूढ़ संदेश
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Kya God भी करते हैं Adharm? जानिए Shukdev-Parikshit Samvad का गूढ़ संदेश |
❖ 1. भगवान को न पुण्य छूता है न पाप
श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार, भगवान की लीलाएँ लौकिक दृष्टि से चाहे जैसी दिखें, वे वास्तव में पारमार्थिक, दिव्य और मायातीत होती हैं। यही कारण है कि—
"भगवान को न पुण्य छू सकता है, न पाप।"वे कर्तुम, अकर्तुम, अन्यथा कर्तुं समर्थः हैं।
❖ 2. शुकदेव जी का रहस्यमय उद्घाटन
जब राजा परीक्षित ने रासलीला प्रसंग पर आश्चर्य व्यक्त किया, तब शुकदेव जी ने गहराई से उत्तर दिया—
✦ "तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्या अपि संगताः"
(भागवत 10.29.11)
"जो गोपियाँ 'जारभाव' से श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं, वे भी परमात्मा में लीन हो गईं।"
✦ परीक्षित की आशंका:
“गोपियों का प्रेम त्रिगुणमयी कामना युक्त प्रतीत होता है, फिर वे माया से परे कैसे हो गईं?”
इस पर शुकदेव जी ने उत्तर दिया—
✦ *"कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च।
"यदि कोई अपने समस्त भाव – चाहे काम, क्रोध, भय, स्नेह, आदि – भगवान में अर्पित कर दे, तो वह व्यक्ति तन्मय होकर भगवानमय हो जाता है।"
यह "भावसमर्पण" का सार्वभौमिक सिद्धान्त है। भगवान से शुद्ध प्रेम में कोई भी भावना माध्यम बन सकती है, बशर्ते वह पूर्ण एकाग्रता और समर्पण से युक्त हो।
❖ 3. शुद्ध प्रेम और लौकिक कामना का अंतर
श्री वल्लभाचार्य ने स्पष्ट किया—
✦ "क्रिया सर्वापि सैवात्र परं कामो न विद्यते।"— जो क्रिया संसार में प्रेम के लिए होती है, वही भगवान के लिए भी होती है; अंतर केवल भाव की शुद्धता का है।
यहाँ शुकदेव जी परीक्षित को बताना चाहते हैं कि—
- गोपियों का प्रेम कामनात्मक नहीं था, बल्कि परमार्थिक समर्पण था।
- उनके मन, बुद्धि, चित्त, प्राण – सब श्रीकृष्ण में पूर्णतः लीन थे।
❖ 4. जब परीक्षित पुनः संशय में पड़े
रासलीला का वर्णन सुनते समय राजा परीक्षित पुनः प्रश्न करते हैं—
✦ *"स कथं धर्मसेतूनां कर्ता वक्ताभिरक्षिताः।
“जो भगवान धर्म के रक्षक हैं, वे यदि परस्त्रियों से ऐसा व्यवहार करें तो समाज में क्या सन्देश जाएगा?”
शुकदेव जी ने देखा कि परीक्षित अभी आत्मज्ञान की उस अवस्था में नहीं पहुँचे हैं जहाँ भगवत लीलाओं का मायातीत स्वरूप पूरी तरह समझा जा सके।
अतः उन्होंने रासलीला का वर्णन वहीं समाप्त कर दिया।
❖ 5. दिव्य चरित्र का दर्शन – भेद और अभेद
शुकदेव जी यह स्पष्ट करते हैं कि—
✦ "धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम्।"(भागवत 10.33.30)
भगवान और महापुरुषों का व्यवहार प्रथम दृष्टि में धर्म के विरुद्ध प्रतीत हो सकता है, पर वह धर्म से परे होता है – परमधर्मस्वरूप होता है।
उदाहरण:
- पाँच पाण्डवों का एक पत्नी से विवाह – शास्त्रसम्मत होकर भी सामान्य दृष्टि से आपत्तिजनक लगता है।
- श्रीकृष्ण का क्रोध – भीष्म पितामह के विरुद्ध शस्त्र उठाना।
लेकिन इन सबमें माया नहीं है, केवल लीला है।
❖ 6. श्रीकृष्ण का क्रोध भी मधुर
श्रीकृष्ण जब रथ का पहिया उठाकर भीष्म पर क्रुद्ध हुए, तब भीष्म भयभीत नहीं हुए। बल्कि—
✦ "आनन्दमग्न हो गए, प्रेम से अश्रु बहाने लगे।"
उन्होंने कहा—
✦ "आजु जो हरिहिं न शस्त्र गहाऊँतौ लाजौं गंगा जननी को।"
— आज यदि हरि ने शस्त्र नहीं उठाया तो मैं अपने जन्म को धिक्कार दूँगा।
क्यों?
क्योंकि वह क्रोध भी मधुर था, क्योंकि वह भी भगवान की पूर्ण लीला का अंग था।
❖ 7. निष्कर्ष: भगवान के कार्यों की तात्त्विक दृष्टि
अंततः श्रीकृष्ण के प्रत्येक कार्य में, चाहे वह—
- काम हो,
- क्रोध हो,
- या कोई अघटित कार्य हो,
सब में आनन्द ही लबालब भरा होता है। जैसे—
✦ *"न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते।
"भगवान में लगे भाव – काम भी क्यों न हो – बीजहीन हो जाता है, जैसे भुना हुआ अन्न बीज नहीं देता।"
✦ अंतिम टिप्पणी:
ईश्वर के कार्य लौकिक बुद्धि से समझने योग्य नहीं। अनुभव, श्रद्धा, और शरणागति ही उनके मायातीत स्वरूप का साक्षात्कार करा सकते हैं।
✦ "नाहं विरिञ्चो न कुमारनारदौ..."— ब्रह्मा, शंकर, नारदादि भी भगवान की लीला का पूर्ण रहस्य नहीं जानते।
मंत्र:
✦ "मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्"— श्रीकृष्ण के प्रत्येक अंग, लीला, भाव – सब मधुर ही मधुर हैं।