Ramcharitmanas: "यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ" का विश्लेषण
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ॥
अर्थात्, श्री रघुनाथ जी का रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नहीं जान पाता। श्री रघुनाथजी की कृपा से जो इसे जान जाता है, उसे स्वप्न में भी मोह नहीं होता।
लेकिन वह रहस्य है क्या?
राम जी को तो भक्ति भाती है । माया तो नटिनीमात्र है । राम जी भक्ति के अनुकूल रहते हैं इसी से माया भक्ति से डरती है ।
मेरे भाई माया हम सभी में ब्याप्त है पर जिसे राम भक्ति ब्यापती है उसे माया का डर नहीं होता है । माया स्वयं उससे डरती है । अतएव माया की नही मायापति की चिंतन करें।
तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन॥
वही आपको जानता है, जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन! हे भक्तों के हृदय को शीतल करने वाले चंदन! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं॥
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Ramcharitmanas: "यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ" का विश्लेषण |
भगवान यहां स्पष्ट करते हैं कि –
धन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥
शुद्ध भक्त सदैव मेरे हृदय के अन्त: मन में रहता है और मैं सदैव शुद्ध भक्त के हृदय में रहता हूँ। मेरे भक्त मेरे अतिरिक्त किसी और को नहीं जानते और मैं उनके अतिरिक्त किसी और को नहीं जानता।
जो सबमें मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता|
स्वयं परम कहते, रहता हूँ। मैं प्रेमाकुल उर के द्वारे।।
भगवान कहते हैं कि –
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता।।
उन पर दया करके, मैं उनके हृदय में निवास करता हूँ और ज्ञान के प्रज्वलित दीपक से अज्ञानजनित अंधकार का नाश करता हूँ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
मनुष्य को अपने मन के माध्यम से अपना उद्धार करना चाहिए, न कि उसे पतन की ओर ले जाना चाहिए, क्योंकि स्वयं मन ही आत्मा का मित्र और शत्रु दोनों है. जो व्यक्ति अपने मन को वश में कर लेता है, वह स्वयं का मित्र बनकर उसे उन्नति के पथ पर ले जाता है।
व्यक्ति अपनी वर्तमान स्थिति के लिए स्वयं जिम्मेदार है. आध्यात्मिक उन्नति और आत्म-ज्ञान की प्राप्ति स्वयं के प्रयासों से ही संभव है. मन एक शक्तिशाली उपकरण है, जिसका सही उपयोग आपको मुक्ति दिला सकता है और गलत उपयोग आपको विनाश के मार्ग पर ले जा सकता है।
बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं स्मृतम् ॥
मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का भी कारण है । इन्द्रियविषयों में लीन मन बन्धन का कारण है और विषयों से विरक्त मन मोक्ष का कारण है ।” अतः जो मन निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगा रहता है, वही परं मुक्ति का कारण है ।
अपनी उन्नति या अवनति के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं। कोई भी हमारे लिए ईश्वर-प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं कर सकता। संत और गुरु हमें मार्ग दिखाते हैं, लेकिन हमें स्वयं ही उस पर चलना होता है। हिंदी में एक कहावत है।
अपनी करनी गुरु उतरे। अपनी करनी चेला।।
एक वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं - एक गुरु और एक शिष्य। गुरु अपने कर्मों से ही नीचे उतरेगा, और शिष्य भी अपने कर्मों से ही नीचे उतर सकेगा।"
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ।।
जब मनुष्य इंद्रियों और मन पर विजय प्राप्त कर लेता है, तो वह अपने ही मन को अपना सबसे अच्छा साथी बना लेता है. वह व्यक्ति अपनी बुद्धि और आत्मा के माध्यम से संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है और सुखमय जीवन जीता है. दूसरी ओर, जो मन पर नियंत्रण नहीं कर पाता, उसके लिए मन ही एक बाधा और शत्रु बन जाता है. वह व्यक्ति काम, क्रोध और मोह के वश में हो जाता है और अपने ही कर्मों के कारण दुखी रहता है।
इस जन्म से पहले भी हमारे अनगिनत जन्म हुए हैं, और ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त संत सदैव पृथ्वी पर विद्यमान रहे हैं। किसी भी काल में, यदि संसार ऐसे संतों से रहित हो, तो उस काल की आत्माएँ ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त नहीं कर सकतीं। फिर वे मानव जीवन के उद्देश्य, ईश्वर-साक्षात्कार, को कैसे पूरा कर सकते हैं? इस प्रकार, ईश्वर यह सुनिश्चित करते हैं कि ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त संत प्रत्येक युग में, सच्चे साधकों का मार्गदर्शन करने और मानवता को प्रेरित करने के लिए सदैव विद्यमान रहें। अतः, अनगिनत पूर्व जन्मों में, हमें अनेक बार ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त संतों के दर्शन हुए होंगे, फिर भी हम ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त नहीं कर पाए। इसका अर्थ है कि समस्या उचित मार्गदर्शन का अभाव नहीं, बल्कि उसे स्वीकार करने या उसके अनुसार कार्य करने में हमारी झिझक थी। इसलिए, हमें सबसे पहले अपनी वर्तमान आध्यात्मिकता के स्तर, या उसके अभाव, की ज़िम्मेदारी स्वीकार करनी होगी। तभी हमें यह विश्वास प्राप्त होगा कि यदि हम स्वयं को अपनी वर्तमान स्थिति तक पहुँचा पाए हैं, तो अपने प्रयासों से स्वयं को उन्नत भी कर सकते हैं।
अंत में –
सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते ।।