रामचरितमानस: होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
विवेक और मोह का विवेचन : श्रीरामचरितमानस के आलोक में
१. विवेक और मोह
मोह और विवेक क्या है?
तुलसीदास जी लिखते हैं —
सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और राम जी की कृपा के बिना वह सत्संग नहीं मिलता। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं —
जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुंदर सोना बन जाता है।
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रामचरितमानस: होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥ |
२. गृहस्थ जीवन और भजन
संतशिरोमणि तुलसीदास जी लिखते हैं —
मोह ही जिनका मूल है, ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देने वाले तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान श्री रामचंद्रजी का भजन करो॥
३. मोह का स्वरूप
मोह निशा सब सोवनिहारा
अतः इस मोहरूप स्वाप्निक जगत से जगकर अपने नित्य परमात्म स्वरूप को प्राप्त करने के लिये हमें आवश्यक है कि —
- हम इस मायिक जगत को भगवान से अलग स्वतंत्र सत्ता मानकर भोग्य रूप में स्वीकार न करें।
- अपितु जगत को भगवतरूप जानकर उन स्वकीय परमात्मा से अनन्य प्रेम करें।
तब निश्चित रूप से स्वप्नरूप भ्रम की निवृति होकर सत्यस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होगी।
४. संन्यास का स्वरूप
संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती।
मनुष्य रोगों से पीड़ित हैं, भोग कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्ष का थोड़ा-सा जीवन है, परंतु घमंड ऐसा है मानो कल्पांत होने पर भी उनका नाश नहीं होगा।
५. जीवन का सत्य
जीवन का सत्य यही है —
- देते रहोगे तो सबको मीठे लगोगे।
- लेते रहोगे तो खारे लगोगे।
- रुक गए तो सबको बेकार लगोगे।
६. संन्यासी की शर्तें
जो दुराचार से पृथक नहीं, शान्त नहीं, आत्मा बागी है और मन स्थिर नहीं — वह संन्यास लेकर भी परमात्मा को प्राप्त नहीं होता।
इसलिए —
संन्यासी बुद्धिमान वाणी और मन को अधर्म से रोके। उन्हें आत्मज्ञान में लगाए और फिर उस आत्मा को परमात्मा के शान्त स्वरूप में स्थिर करे।
७. अयोध्या और राज्याभिषेक
अपनी चमड़े की आँख से दिवाली कितनी ही बार देख चुके, लेकिन जब तक अन्तःकरण में दिवाली न देख लें, जीवन व्यर्थ है।
कथा-कहानी में राम जी को अयोध्या के राजसिंहासन पर कितनी बार बिठाया, बताओ तो अपने मन में कब बिठाओगे?
जब तक भगवान का राज्याभिषेक तुम्हारे मन में नहीं होगा, तुम्हारे जीवन में रामराज्य कैसे आएगा?
८. लंका का तात्त्विक अर्थ
- दैविक
- आसुरी
रावण (मोह), कुम्भकरण (क्रोध), मेघनाथ (काम), नरान्तक (लोभ), सूर्पनखा (प्रकृति), ताड़का (तर्क), सुबाहु (स्वभाव), मारीच (मन का मैल), मयदानव (मन), अहिरावण (अहंकार), लंका (शारीरिक अनुरक्ति) — ये सब आसुरी प्रवृत्तियाँ हैं।
९. विद्या का स्वरूप
विद्या हि का ब्रह्म गति प्रदाया।
जो विद्या और अविद्या दोनों को जानता है, वह अविद्या से मृत्यु पार करता है और विद्या से अमृतत्त्व (देवत्व) प्राप्त करता है।
१०. दशरथ और दैवी सम्पत्तियाँ
- राम (विज्ञान)
- लक्ष्मण (विवेक)
- भरत (भाव)
- शत्रुघ्न (सत्संग)
११. वास्तविक दिवाली
१२. अन्तिम उपदेश
प्राणवायु जब त्रिगुणों से रहित हो जाती है तो विकार समाप्त हो जाते हैं और मृत्यु का असर नहीं होता। वही स्थिति सरयू तट की अवध है।
🙏 जय श्रीराम 🙏