रामचरितमानस: होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥

Sooraj Krishna Shastri
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रामचरितमानस: होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥


विवेक और मोह का विवेचन : श्रीरामचरितमानस के आलोक में

१. विवेक और मोह

श्लोक
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा।
तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
सखा परम परमारथु एहू।
मन क्रम बचन राम पद नेहू॥

भावार्थ
विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ है॥

मोह और विवेक क्या है?

तुलसीदास जी लिखते हैं —

बिनु सत्संग विवेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।

सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और राम जी की कृपा के बिना वह सत्संग नहीं मिलता। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं —

सठ सुधरहिं सत्संगति पाई।
पारस परस कुघात सुहाई।।

जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुंदर सोना बन जाता है।

रामचरितमानस: होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
रामचरितमानस: होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥



२. गृहस्थ जीवन और भजन

हमारा कहने का मतलब यह नहीं है कि घर-द्वार छोड़कर सब संन्यासी बन जाओ। मेरे भाई! गृहस्थ आश्रम में रहकर भी राम भजन किया जा सकता है —
लेकिन निमित्त मात्र बनकर करो, कर्ता बनकर नहीं।

संतशिरोमणि तुलसीदास जी लिखते हैं —

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥

मोह ही जिनका मूल है, ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देने वाले तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान श्री रामचंद्रजी का भजन करो॥


३. मोह का स्वरूप

मोह निशा सब सोवनिहारा

अतः इस मोहरूप स्वाप्निक जगत से जगकर अपने नित्य परमात्म स्वरूप को प्राप्त करने के लिये हमें आवश्यक है कि —

  • हम इस मायिक जगत को भगवान से अलग स्वतंत्र सत्ता मानकर भोग्य रूप में स्वीकार न करें।
  • अपितु जगत को भगवतरूप जानकर उन स्वकीय परमात्मा से अनन्य प्रेम करें।

तब निश्चित रूप से स्वप्नरूप भ्रम की निवृति होकर सत्यस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति होगी।


४. संन्यास का स्वरूप

बहु दाम सँवारहिं धाम जती।
बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती
तपसी धनवंत दरिद्र गृही।
कलि कौतुक तात न जात कही

संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती।

नर पीड़ित रोग न भोग कहीं।
अभिमान बिरोध अकारन हीं॥
लघु जीवन संबदु पंच दसा।
कलपांत न नास गुमानु असा॥

मनुष्य रोगों से पीड़ित हैं, भोग कहीं नहीं है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पाँच वर्ष का थोड़ा-सा जीवन है, परंतु घमंड ऐसा है मानो कल्पांत होने पर भी उनका नाश नहीं होगा।


५. जीवन का सत्य

नदी का पानी मीठा होता है क्योंकि वह देता रहता है।
सागर का पानी खारा होता है क्योंकि वह लेता रहता है।
नाले का पानी दुर्गंध देता है क्योंकि वह रुका हुआ होता है।

जीवन का सत्य यही है

  • देते रहोगे तो सबको मीठे लगोगे।
  • लेते रहोगे तो खारे लगोगे।
  • रुक गए तो सबको बेकार लगोगे।

६. संन्यासी की शर्तें

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥

जो दुराचार से पृथक नहीं, शान्त नहीं, आत्मा बागी है और मन स्थिर नहीं — वह संन्यास लेकर भी परमात्मा को प्राप्त नहीं होता।

इसलिए —

बच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेत् ज्ञान आत्मनि ।
ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥

संन्यासी बुद्धिमान वाणी और मन को अधर्म से रोके। उन्हें आत्मज्ञान में लगाए और फिर उस आत्मा को परमात्मा के शान्त स्वरूप में स्थिर करे।


७. अयोध्या और राज्याभिषेक

अपनी चमड़े की आँख से दिवाली कितनी ही बार देख चुके, लेकिन जब तक अन्तःकरण में दिवाली न देख लें, जीवन व्यर्थ है।

कथा-कहानी में राम जी को अयोध्या के राजसिंहासन पर कितनी बार बिठाया, बताओ तो अपने मन में कब बिठाओगे?

जब तक भगवान का राज्याभिषेक तुम्हारे मन में नहीं होगा, तुम्हारे जीवन में रामराज्य कैसे आएगा?

अयोध्या का अर्थ
युद्धं न भवतीति सा अयोध्या।
जहाँ संकल्प-विकल्प का युद्ध रुक जाए वही अयोध्या है।
जहाँ वध न हो, वही अवध है।


८. लंका का तात्त्विक अर्थ

श्रीरामचरितमानस वस्तुतः अन्तःकरण की लड़ाई है।
हमारी दो प्रवृत्तियाँ —

  • दैविक
  • आसुरी

रावण (मोह), कुम्भकरण (क्रोध), मेघनाथ (काम), नरान्तक (लोभ), सूर्पनखा (प्रकृति), ताड़का (तर्क), सुबाहु (स्वभाव), मारीच (मन का मैल), मयदानव (मन), अहिरावण (अहंकार), लंका (शारीरिक अनुरक्ति) — ये सब आसुरी प्रवृत्तियाँ हैं।


९. विद्या का स्वरूप

विद्या हि का ब्रह्म गति प्रदाया।

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं सह ।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते॥

जो विद्या और अविद्या दोनों को जानता है, वह अविद्या से मृत्यु पार करता है और विद्या से अमृतत्त्व (देवत्व) प्राप्त करता है।


१०. दशरथ और दैवी सम्पत्तियाँ

दशरथ = दसों इन्द्रियों का दमन करने वाला रथी।
कौशल्या (भक्ति), सुमित्रा (सुमति), कैकेयी (कर्म) से जन्म होता है —

  • राम (विज्ञान)
  • लक्ष्मण (विवेक)
  • भरत (भाव)
  • शत्रुघ्न (सत्संग)

११. वास्तविक दिवाली

जिस दिन मंदिर एवं मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा हृदय में होगी,
वही असली अयोध्या होगी,
वही असली राज्याभिषेक होगा,
वही असली दिवाली होगी।


१२. अन्तिम उपदेश

बहई सुहावन त्रिविध समीरा।
भई सरयू अति निर्मल नीरा।।

प्राणवायु जब त्रिगुणों से रहित हो जाती है तो विकार समाप्त हो जाते हैं और मृत्यु का असर नहीं होता। वही स्थिति सरयू तट की अवध है।

संदेश
लकड़ियों में जाने से पहले, देह लकड़ी होने से पहले, यह कार्य संपूर्ण करना ही है।

भरद्वाज सुनु जाहि जब होई बिधाता बाम।
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥


🙏 जय श्रीराम 🙏


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