Asidhara Vrat Shlok Meaning: सज्जन पुरुषों का कठोर जीवन मार्ग | Edge of Sword Philosophy

Sooraj Krishna Shastri
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Asidhara Vrat Shlok Meaning: सज्जन पुरुषों का कठोर जीवन मार्ग | Edge of Sword Philosophy

"Learn the meaning of Sanskrit श्लोक on असिधारा व्रत: Why noble men never beg from wicked or poor, avoid injustice, and stay steady like walking on sword’s edge."


1. श्लोक (देवनागरी)

असन्तो नाभ्यर्थाः सुहृदपि न वाच्यः कृशधनः
प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरम् ।।
विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महताम्
सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ।।

2. Transliteration (IAST + simple)

IAST:
asanto nābhyarthyāḥ suhṛd api na yācyaḥ kṛśadhanaḥ |
priyā nyāyyā vṛttir malinam asubhaṅge 'pi asukaram ||
vipady uccaiḥ stheyaṃ padam anuvidheyaṃ ca mahatām |
satāṃ kenoddiṣṭaṃ viṣamam asidhārāvratam idam ||

3. शाब्दिक अर्थ (word-to-word / शाब्दिक)

  • असन्तो — सज्जन/सज्जनजन (या: असन्त = यहाँ 'सज्जन' का रूपार्थ; कुछ अर्थों में—‘सज्जन लोग’)
  • न अभ्यर्थ्याः — (किसी से) प्रार्थना/याचना न करें (न + अभ्यर्थ्याः = न याच्यन्ते/न याचयेत्)
  • सुहृद् अपि — मित्र/स्नेही भी (even a friend)
  • न याच्यः — (न याचितव्यः) नहीं याचना करनी चाहिए
  • कृशधनः — अल्पधन वाला, गरीब (thin/poor in wealth)
  • प्रिया — प्रिय/प्रियजन (या: प्रिय को) — यहाँ सम्भवतः ‘प्रिय’ = प्रियतम/स्नेही (या प्रियता)
  • न्याय्या वृत्ति — न्याययुक्त/धर्मयुक्त आचरण (equitable/elevated conduct)
  • मलिनम् — कलंकित/निरन्तर दागयुक्त (mally = गंदा, मलिन = भ्रष्ट, दागयुक्त) — पर यहाँ संभवतः ‘मलिनम्’ = दुष्टता-युक्त या असज्जन व्यवहार से बिम्बित
  • असुभङ्गेऽपि — असुभंग = नीच स्वरूप/नीच कृत्य/अशोभनीय कर्म; ‘अपि’ = भी
  • असुकरम् — करना कठिन/असाध्य/अनुचित (doable न होना) — अथवा “बहु क्लिष्ट/दुर्लभ”
  • विपदि — विपत्ति में, संकट में (सप्तमी एकवचन)
  • उच्चैः स्थेयं — ऊँचे धैर्य से खड़ा रहना चाहिए (स्थेयं = स्थातव्यम्, भावे लोट्/तुमुन्-प्रत्यय; कर्तव्यवाचक)
  • पदम् अनुविधेयं — मार्ग का अनुसरण करना चाहिए (अनु + विधेयं = अनुकरणीय)
  • महताम् — महात्माओं का, महान् पुरुषों का (षष्ठी बहुवचन)
  • सताम् — सज्जनों का, सत्पुरुषों का
  • केन उद्दिष्टम् — किसने यह निर्धारित किया है? (उद्दिष्टम् = ठहराया हुआ, दर्शाया गया)
  • विषमम् — कठिन, दुष्कर

  • असिधाराव्रतम् — तलवार की धार जैसा व्रत (उपमा: अत्यन्त कठिन साधना)
  • इदम् — यह

4. भावपूर्ण हिन्दी अनुवाद (Smooth meaning)

“सज्जन पुरुषों के लिए यह कठोर मार्ग (जैसे तलवार की धार पर चलना) किसने निर्देश किया — कि दुष्टों से प्रार्थना मत करो; यदि मित्र भी अल्पधन है तो उससे भी याचना मत करो; प्रिय और न्यायपूर्ण आचरण को अपनाओ; नीच, अपवित्र और अशोभनीय कर्म करना, भले वह जीवन के संकटों में भी हो, असम्भव/अनुचित है।—किसी ने विशेष रूप से यह आदेश नहीं दिया, पर सज्जनों का स्वभाव स्वाभाविक रूप से यही है।”

Asidhara Vrat Shlok Meaning: सज्जन पुरुषों का कठोर जीवन मार्ग | Edge of Sword Philosophy
Asidhara Vrat Shlok Meaning: सज्जन पुरुषों का कठोर जीवन मार्ग | Edge of Sword Philosophy


(सरल शुद्ध हिन्दी) —
“दुष्टों से प्रार्थना न करना, गरिब मित्र से याचना न करना, न्यायप्रिय आचरण रखना, नीच कामों में न उतरना — ये उपदेश किसी ने लिखकर नहीं बताए पर सज्जन पुरुष स्वभावतः इन्हीं मार्गों का अनुसरण करते हैं।सज्जन या साधु जीवन जीना सरल नहीं है। विपत्ति में भी विचलित न होना, महापुरुषों द्वारा चलाए गए पथ पर दृढ़ता से चलना—यह जीवन-नीति ऐसी कठिन है मानो कोई तलवार की धार पर चल रहा हो।”


5. व्याकरणात्मक और संरचनात्मक विश्लेषण (मुख्य बिंदु)

  • असन्तो — संभवतः सज्जन-जन (यहां ‘asanto’ = ‘सज्जन लोग’) — या यह असन्तः (उपस्थित नहीं) का रूप नहीं है; परानुमेय अर्थ से इसे ‘सज्जन’ समझना अर्थसंगत है।
  • न अभ्यर्थ्याः — क्रियापद के समकक्ष निषेध: “प्रार्थना न करें/न याचयन्तु” । (अभ्यर्थ्याः = याचना/प्रार्थना)
  • सुहृद् अपि न याच्यः कृशधनः — यहाँ अर्थ: “सहृद (मित्र) भी यदि कृशधन (अल्प-धन) है तो याचित न कर” — वाक्य में सुहृद् अपि (even a friend) तथा कृशधनः (यदि वह गरीब है) — नयार्थक: “याचना न करनी चाहिए, भले वह मित्र ही क्यों न हो, यदि वह गरीब है।”
    • व्याकरण: याच्यः एक विधिलिङ् (कर्तव्य/निषेधार्थ) के रूप में पढ़ा जा सकता है — “न...याच्यः” = “...को याचित न करें”
  • प्रिया न्याय्या वृत्तिः — सम्भवतः ‘प्रिया-न्याय्या वृत्’ = प्रिय और न्याययुक्त आचरण ; या प्रिया-न्याय्यावृत्तिः = “प्रिय तथा न्याय्य आचरण”। अर्थ: प्रिय/उचित और न्याययुक्त जीवन-व्यवहार।
  • मलिनम् असुभङ्गेऽपि — मलिनम् = दागयुक्त/नीचता/कलंकित; असुभङ्गे = असुभ (नीच) + अंग (कार्य/स्वरूप) ; ‘अपि’ जोड़कर: “नीच कर्मों में भी”।
  • असुकरम् — कठिन/असाध्य/अनुचित — यहाँ संभव अर्थ: “उन नीच कर्मों का करना भी कठिन/अनुकरणीय नहीं है” — यानी सज्जन स्वभावतः नीच काम करने से दूर रहते हैं, भले परिस्थितियाँ कैसी भी हों।

समेकित अर्थ-रचना (संरचना)

पूरी पंक्ति निषेधात्मक व नीति-वाक्य है: सज्जनों का भव्य आचरण — दुष्टों से प्रार्थना न करना, अल्प-धन मित्र से याचना न करना, न्याययुक्त आचरण रखना; मलिन/नीच कर्म करने से बचना — ये सब उनके स्वभाव में निहित हैं; इसे ‘कठोर मार्ग’ कहा गया है पर सज्जन स्वयं इसे बिना किसी उपदेश के अपनाते हैं।


6. आधुनिक सन्दर्भ (प्रासंगिकता)

यह श्लोक न केवल नैतिक नीति का उच्च सिद्धान्त बताता है बल्कि आधुनिक जीवन के अनेक क्षेत्रों में भी सीधा लागू होता है:

  1. आत्म–सम्मान (Self-respect): कठिन परिस्थितियों में भी अपना आत्मसम्मान न खोना — गरीबी के कारण मित्रों या किसी भी व्यक्ति से अपमानजनक याचना न करना।
  2. कार्यस्थल और करियर: अगर कोई नियोक्ता या संगठन अनैतिक है (दुष्ट या कलंकित), तो वहाँ अनादर के भय से या फायदे के हेतु अपनी गरिमा न गिराएँ।
  3. नैतिक दृढ़ता: न्याययुक्त आचरण और नैतिकता को प्राथमिकता देना— भले परिस्थितियाँ विपरीत हों।
  4. लिडरशिप एवं सिविल सोसायटी: समाज के सज्जन/नेता अक्सर उन कठिन निर्णयों का पालन करते हैं जो अल्पकालीन लाभ के लिए अपेक्षित नहीं होते (उदा. भ्रष्टाचार न करना)।
  5. मानसिक स्वास्थ्य: आत्मसम्मान बनाये रखने से दीर्घकालिक मानसिक सुदृढ़ता मिलती है — याचना/अपमान से आत्म-आतंक बढ़ सकता है।

उदाहरण: आज के समय में एक नैतिक कर्मचारी जो अपने प्रतिभा/मूल्यों के अनुसार रहना चाहता है, वह भ्रष्ट या अन्यायपूर्ण व्यवस्था में नहीं टिकेगा; वह सम्मान के साथ अलग राह चुन सकता है — श्लोक यही सिखाता है।


7. संवादात्मक नीति-कथा (संवाद शैली में)

दृश्य: एक छोटा आश्रम — गुरु और दो शिष्य चर्चा कर रहे हैं।

शिष्य 1 (विवेक): गुरुजी, जब मेरे सामने नौकरी का अवसर आया पर वहाँ अधिकारियों ने अनुचित काम करवा रहे थे — तो मजबूरी में मैंने आदेश मान लिया। क्या यह ठीक था?

गुरु: (शांत स्वर में) क्या तुमने कभी सोचा कि एक बार आत्म-सम्मान खो दिया तो फिर उसे वापस पाना कठिन होगा?

शिष्य 2 (धीर): गुरुजी, पर भला इंसान कुछ समय के लिए ही सही — अपनी और परिवार की ज़रूरतें कैसे पूरी करेगा?

गुरु: देखो — श्लोक कहता है कि सज्जनों का स्वभाव कठोर मार्ग अपनाना है: दुष्टों से प्रार्थना न करना, गरीब मित्र से अपमानजनक याचना न करना, न्यायसंगत जीवन रखना और नीच कर्मों में न उतरना। इसका मतलब यह नहीं कि आवश्यकता न पूरी करो; पर अपनी ईमानदारी और सम्मान न बेचो। यदि व्यवस्था इतनी बेशर्म है कि तुम्हें नीच काम करने के लिए दबाव डालती है, तो वैकल्पिक मार्ग ढूँढो — क्योंकि अस्थायी लाभ के लिए आत्म-सम्मान का त्याग घातक हो सकता है।

शिष्य 1: पर क्या यह आसान है?

गुरु: नहीं — और यही इसे ‘तलवार की धार पर चलना’ जैसा कठोर बनाता है। पर सज्जन लोग — जो चरित्र से महान होते हैं — स्वभावतः यह कठिन मार्ग चुन लेते हैं; उन्हें किसी ने विशेष निर्देश देकर नहीं कहा—वे ऐसे ही चलते हैं।

नीति: गरिमा के लिए क्षणिक असुविधा स्वीकार कर लो, पर अपना धर्म और आदर्श विक्रोचित मत होने दो।



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