Mahabharat Van Parv Yaksha Yudhishthir Samvad: महाभारत वन पर्व में वर्णित यक्ष–युधिष्ठिर संवाद का विश्लेषण
🌸 यक्ष–युधिष्ठिर संवाद का गूढ़ रहस्य 🌸
प्रस्तुत प्रसंग महाभारत के वनपर्व से लिया गया है। यक्ष–युधिष्ठिर संवाद केवल प्रश्नोत्तर नहीं, बल्कि जीवन के गहन सत्यों का उद्घाटन है। यहाँ यक्ष ने पूछा कि –
✦ मूल प्रश्न (यक्ष उवाच)
👉 “ऐसा कौन पुरुष है, जो बुद्धिमान, लोक में सम्मानित और सब प्राणियों का माननीय होकर इन्द्रियों के विषयों का अनुभव करता है, श्वास भी लेता है, परंतु जीवित नहीं है?”
✦ उत्तर (युधिष्ठिर उवाच)
👉 “जो देवता, अतिथि, कुटुम्ब-भृत्य (परिवार/जीव), पितर और आत्मा – इन पाँचों का पोषण नहीं करता, वह श्वास लेते हुए भी जीवित नहीं है (मृतक के समान है)।”
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Mahabharat Van Parv Yaksha Yudhishthir Samvad: महाभारत वन पर्व में वर्णित यक्ष–युधिष्ठिर संवाद का विश्लेषण |
1️⃣ देव-यज्ञ – देवताओं का भरण-पोषण
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देवताओं का अर्थ यहाँ केवल अदृश्य दिव्य शक्तियों तक सीमित नहीं है।
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प्रकृति (जल, वायु, अग्नि, आकाश, पृथ्वी), राजा/शासन, और विद्वान ब्राह्मण – ये सभी देवतुल्य हैं क्योंकि ये हमारे अस्तित्व और समाज की रक्षा करते हैं।
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गृहस्थ का कर्तव्य है –
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पर्यावरण की रक्षा करना, वृक्षारोपण करना।
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यज्ञ, हवन आदि से वायुमंडल शुद्ध करना।
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राज्य को कर देकर शासन का सहयोग करना।
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विद्वानों और आचार्यों को यथाशक्ति दान देना।
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👉 ऐसा करके गृहस्थ देवताओं का ऋण चुकाता है।
2️⃣ अतिथि-यज्ञ – अतिथियों का भरण-पोषण
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“अतिथि देवो भव” – यह वैदिक वचन हमें स्मरण कराता है कि हमारे द्वार पर आने वाला प्रत्येक अतिथि देवतुल्य है।
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केवल मित्र या रिश्तेदार ही नहीं, बल्कि साधु, भिक्षुक, अनाथ या अजनबी अतिथि भी हमारे अन्न व सम्मान के अधिकारी हैं।
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अतिथि की उपेक्षा को शास्त्रों ने पाप बताया है।
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अतिथि-सेवा से ही गृहस्थ का घर पवित्र और पुण्यमय बनता है।
3️⃣ भूत-यज्ञ – कुटुम्ब व जीव-जंतुओं का पालन
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परिवार, माता-पिता, पत्नी, संतान, सेवक आदि हमारे ही ऊपर आश्रित रहते हैं।
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उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति गृहस्थ का प्रथम उत्तरदायित्व है।
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साथ ही पशु-पक्षियों, गोवंश तथा भूखे–प्यासे जीवों की सेवा भी भूत-यज्ञ का अंग है।
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जो गृहस्थ अपने परिजनों और आश्रितों का पालन न कर सके, वह श्वास लेते हुए भी समाज में मृतक के समान है।
4️⃣ पितृ-यज्ञ – पितरों का तर्पण
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पितर हमारे पूर्वज हैं, जिनके कारण आज हम अस्तित्व में हैं।
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उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना ही पितृ-यज्ञ है।
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श्राद्ध, तर्पण, दान, ब्राह्मणभोजन, या उनके नाम पर धर्मार्थ कार्य करना – सब पितरों के भरण-पोषण का ही अंग है।
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पितरों का स्मरण और तर्पण हमें परंपरा से जोड़ता है तथा आत्मिक बल देता है।
5️⃣ आत्म-यज्ञ – स्वयं का भरण-पोषण
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सबसे महत्त्वपूर्ण है आत्मा का पोषण।
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इसका अर्थ है –
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शरीर को स्वस्थ रखना (योग, संयमित आहार, व्यायाम)।
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बुद्धि और मन को पवित्र रखना (स्वाध्याय, सत्संग, ध्यान)।
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आत्मा की उन्नति के लिए सतत प्रयासरत रहना।
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यदि गृहस्थ स्वयं अस्वस्थ या अविवेकी है, तो वह दूसरों का भी भरण-पोषण नहीं कर पाएगा।
✨ पंच महायज्ञ : गृहस्थ के पाँच अनिवार्य कर्तव्य ✨
क्रम | श्लोक में उल्लिखित | महायज्ञ का नाम | अर्थ व कर्तव्य | व्यावहारिक रूप |
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1️⃣ | देवता (Devatāḥ) | देव-यज्ञ | प्रकृति, राजा और विद्वान ब्राह्मण का संरक्षण व योगदान | यज्ञ, पर्यावरण-रक्षा, वृक्षारोपण, कर-भुगतान, दान |
2️⃣ | अतिथि (Atithiḥ) | अतिथि-यज्ञ | द्वार पर आने वाले अतिथि, साधु, भिक्षुक की सेवा | भोजन, जल, सत्कार; “अतिथि देवो भव” |
3️⃣ | भृत्य/कुटुम्ब (Bhṛtyaḥ) | भूत-यज्ञ | परिवार, सेवक, आश्रितों तथा जीव-जंतुओं का पालन | माता-पिता, संतान, गोवंश, पशु-पक्षी, आश्रितों की देखभाल |
4️⃣ | पितरः (Pitaraḥ) | पितृ-यज्ञ | पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता व श्रद्धा | श्राद्ध, तर्पण, दान, लोकहितकारी कार्य |
5️⃣ | आत्मा (Ātmanः) | आत्म-यज्ञ | शरीर व आत्मा का भरण-पोषण | स्वास्थ्य-संरक्षण, स्वाध्याय, सत्संग, आत्मोन्नति |
🌺 सारांश
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यक्ष ने जीवन की परिभाषा पर प्रश्न उठाया।
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युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि — “जीवित वही है जो अपने पाँच मूल कर्तव्यों (पंच महायज्ञ) का पालन करता है।”
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केवल श्वास लेना जीवन नहीं है; कर्तव्य-पालन ही सच्चा जीवन है।