प्रस्तुत श्लोक अत्यंत गंभीर राजनीति से संबंधित है, जो वाणी के संयम और व्यवहारिक बुद्धि का उत्तम उपदेश देता है।
आइए इस श्लोक का विस्तृत विश्लेषण करते हैं —
“अपृष्टोऽत्राप्रधानो यो ब्रूते: वाणी का संयम और सम्मान की नीति | Sanskrit Shloka Meaning & Analysis”
यह संस्कृत नीति श्लोक सिखाता है कि बिना पूछे बोलना असम्मान और उपहास का कारण बनता है। वाणी-संयम ही सम्मान और बुद्धिमत्ता का प्रतीक है।
अपृष्टोऽत्राप्रधानो यो ब्रूते — वाणी संयम और नीति का शाश्वत सूत्र | Apṛṣṭo’trāpradhāno Yo Brūte – Power of Speech Control in Sanskrit Niti Shloka
🕉️ 1. श्लोक
अपृष्टोऽत्राप्रधानो यो ब्रूते राज्ञः पुरः कुधीः।
न केवलमसम्मानं लभते च विडम्बनम्॥
✍️ 2. English Transliteration
Apṛṣṭo’trāpradhāno yo brūte rājñaḥ puraḥ kudhīḥ।
Na kevalam asammānaṃ labhate ca viḍambanam॥
🌿 3. हिन्दी अनुवाद
जो व्यक्ति राजा के सामने, बिना पूछे और अपने पद का विचार किए बिना बोलता है, वह मूर्ख कहलाता है।
ऐसा व्यक्ति केवल अपमान ही नहीं, बल्कि उपहास (विडम्बना) का भी पात्र बनता है।
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अपृष्टोऽत्राप्रधानो यो ब्रूते — वाणी संयम और नीति का शाश्वत सूत्र | Apṛṣṭo’trāpradhāno Yo Brūte – Power of Speech Control in Sanskrit Niti Shloka |
🪷 4. शब्दार्थ
संस्कृत शब्द | अर्थ |
---|---|
अपृष्टः | बिना पूछे |
अत्र | यहाँ, सभा में |
अप्रधानः | कनिष्ठ या महत्वहीन व्यक्ति |
यः | जो व्यक्ति |
ब्रूते | बोलता है |
राज्ञः पुरः | राजा के सम्मुख |
कुधीः | मूर्ख, अविवेकी |
न केवलम् | केवल नहीं |
असम्मानम् | अपमान |
लभते | प्राप्त करता है |
च | और |
विडम्बनम् | उपहास, हँसी उड़ाया जाना |
📘 5. व्याकरणात्मक विश्लेषण
- अपृष्टः — “प्रच्छ् (पूछना)” धातु से निष्पन्न; अप उपसर्ग के साथ निषेधार्थक प्रयोग (बिना पूछे)।
- अप्रधानः — “प्रधान” का निषेध; महत्वहीन, कनिष्ठ।
- ब्रूते — “ब्रू” धातु, लट् लकार (वर्तमान काल), आत्मनेपदी (कहता है)।
- राज्ञः पुरः — “राजा” का षष्ठी विभक्ति रूप (राजा के), “पुरः” = सामने।
- कुधीः — “कु” (बुरा) + “धी” (बुद्धि), बुरे विचारों वाला व्यक्ति।
- असम्मानम्, विडम्बनम् — नपुंसकलिंग संज्ञा, कर्मकारक रूप में द्वितीय विभक्ति।
🌏 6. आधुनिक सन्दर्भ
यह नीति आज के सामाजिक और पेशेवर जीवन में भी अत्यंत प्रासंगिक है।
- जो व्यक्ति अनुशासन, वरिष्ठता या अवसर का विचार किए बिना बोलता है, वह अपनी प्रतिष्ठा खो देता है।
- किसी भी संगठन, सभा या कार्यस्थल पर वाणी का संयम और समय-चयन सफलता का मूलमंत्र है।
- “कब बोलना है और कब चुप रहना है” — यही बुद्धिमत्ता का पहला लक्षण है।
आज के दौर में यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि —
👉 ज्ञान का प्रदर्शन करने से पहले विवेक आवश्यक है।
👉 सम्मान अर्जित करने के लिए पहले सुनना, फिर बोलना चाहिए।
🎭 7. संवादात्मक नीति कथा (Moral Story in Dialogue Form)
स्थान: राजा विक्रम के दरबार में।
राजा विक्रम: (सभा में प्रश्न पूछते हुए) “आज के कार्य पर मंत्री क्या विचार रखते हैं?”
मंत्री: “महाराज, हमें सीमाओं की रक्षा के उपाय बढ़ाने चाहिए।”
(तभी एक कनिष्ठ सेवक बिना बुलाए बोल उठता है)
सेवक: “महाराज! हमें सेना की आवश्यकता ही नहीं, देवता हमारी रक्षा करेंगे!”
सभा में हँसी फैल जाती है।
राजा: “वत्स! तुम्हारी भावना शुभ है, पर स्थान और समय का विचार किए बिना बोले गए वचन हास्य का विषय बन जाते हैं।”
मंत्री: “यही कारण है कि बुद्धिमान व्यक्ति ‘अपृष्टः’ होकर नहीं बोलता।”
राजा: “सही कहा। बिना पूछे वाणी करना मूर्खता है — यह न केवल असम्मान लाता है, बल्कि उपहास भी।”
🌺 8. निष्कर्ष (Conclusion)
“वाणी में संयम ही सम्मान का कारण है।”
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि —
- ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण है उसका सही प्रयोग।
- बिना समय, स्थान और पात्र के विचार के बोले गए शब्द, व्यक्ति को हास्यास्पद बना देते हैं।
- श्रेष्ठ व्यक्ति वही है जो मौन और वाणी दोनों का उचित संतुलन जानता है।
🌸 नीति-सूत्र:
“जो बिना बुलाए बोलता है, वह स्वयं को मौन का पाठ सिखा देता है — अपमान के अनुभव से।”
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