धर्म के लिए धन अर्जन: Santjan ki Arth नीति – Meaning of Dhan for Dharma in Sanskrit Wisdom

Sooraj Krishna Shastri
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संतजन सदा धर्म के लिए प्रयत्नपूर्वक धन कमाते हैं। संस्कृत श्लोक “सन्तः कुर्वन्ति यत्नेन धर्मस्यार्थे धनार्जनम्” यह सिखाता है कि धन का उद्देश्य केवल भौतिक सुख नहीं, बल्कि धर्म की स्थापना होना चाहिए। जो व्यक्ति धर्म और सदाचार से रहित होकर धन अर्जित करता है, उसका धन “मलसंचय” के समान व्यर्थ है। इस लेख में हम इस नीति श्लोक का अंग्रेजी ट्रान्सलिटरेशन, हिन्दी अनुवाद, शब्दार्थ, व्याकरण, और आधुनिक जीवन में इसकी प्रासंगिकता का विश्लेषण करेंगे। साथ ही एक संवादात्मक नीति कथा के माध्यम से समझेंगे कि आज के समाज में धर्म के अनुरूप धन कमाना क्यों आवश्यक है। यह लेख नीति शास्त्र, संस्कृत अध्ययन और नैतिक जीवन के विद्यार्थियों के लिए अत्यंत उपयोगी है।

धर्म के लिए धन अर्जन: Santjan ki Arth नीति – Meaning of Dhan for Dharma in Sanskrit Wisdom

धर्म के लिए धन अर्जन: Santjan ki Arth नीति – Meaning of Dhan for Dharma in Sanskrit Wisdom
धर्म के लिए धन अर्जन: Santjan ki Arth नीति – Meaning of Dhan for Dharma in Sanskrit Wisdom

1. श्लोक

सन्तः कुर्वन्ति यत्नेन धर्मस्यार्थे धनार्जनम् ।
धर्माचारविहीनानां द्रविणं मलसञ्चयः ॥


2. English Transliteration (IAST)

Santaḥ kurvanti yatnena dharmasya arthe dhanārjanam ।
Dharmācāravihīnānāṃ draviṇaṃ malasañcayaḥ ॥


3. हिन्दी अनुवाद

सज्जन (धर्मशील) लोग धर्म के उद्देश्‍य के लिए परिश्रमपूर्वक धनार्जन करते हैं।
परन्तु जो धर्म—आचार से विरहित हैं, उनके लिए (उनका) धन केवल मल (गंदगी) का संचय मात्र है।

(सरल रूप) — धर्म के लिए जो मेहनत से धन कमाते हैं वे पुण्यवान हैं; जो लोग धर्महीन हैं उनके धन का मूल्य गंदगी के ढेर जैसा ही है।


4. शब्दार्थ (word-by-word)

  • सन्तः — सज्जन, धर्मशील लोग (सन्त — उत्तम पुरुष) (प्रथमा बहुवचन)
  • कुर्वन्ति — (वे) करते हैं; कर रहे हैं (क्रिया, लट्-लकार, प्रथमपुरुष बहुवचन)
  • यत्नेन — प्रयत्न (इन्स्ट्रुमेंटल — "परिश्रम द्वारा/मेहनत से")
  • धर्मस्यार्थे — धर्म के उद्देश्य के लिए (धर्मस्य = धर्म का; arthē = हेतु/लक्ष्य)
  • धनार्जनम् — धन का अर्जन, धन कमाना (द्रव्यम्)
  • धर्माचारविहीनानाम् — धर्म-आचार (नैतिक आचरण) से रहित लोगों का (षष्ठी बहुवचन — "उनके")
  • द्रविणं — धन, संपत्ति (नपुंसक, कभी-कभी neuter)
  • मलसञ्चयः — मल का संचय; गंदगी का ढेर (मल-सञ्चयः = निन्दनीय/अप्रिय संचय)

5. व्याकरणात्मक विश्लेषण (Grammatical analysis)

  1. वाक्य संरचना (Overall structure)

    • पहला पद्य: सन्तः कुर्वन्ति यत्नेन धर्मस्यार्थे धनार्जनम् — स्पष्ट कथन: “सज्जन (वे) परिश्रम से धर्म के लिये धन कमाते हैं।”
    • दूसरा पद्य: धर्माचारविहीनानां द्रविणं मलसञ्चयः — परिणाम/तुलनात्मक कथन: “धर्महीनों का धन तो मलसा≈ंचय मात्र है।”
    • दूसरे पद्य में संक्षेप रूप (elliptical) है — श्लोक का पूरा अर्थ समझने के लिये उपयुक्त शब्द (जैसे 'asti' / 'idam') छूटे हुए माने जा सकते हैं: “[तथा] धर्माचारविहीनानां द्रविणं मलसञ्चयः (इव)।”
  2. विभक्तियाँ और रूप

    • सन्तः — प्रथमा बहुवचन (karta/subject)
    • कुर्वन्ति — क्रिया, लट्-लकार, प्रथमा बहुवचन (वे करते हैं)
    • यत्नेन — तृतीया (instrumental) — "यत्न द्वारा"
    • धर्मस्यार्थे — संयोजित अभिव्यक्ति; संस्कृत में "धर्मस्यार्थे" = "धर्म की उपादेयता / धर्म के उद्देश्य हेतु" (genitive + dative sense)
    • धनार्जनम् — कर्म/उद्देश्य (accusative/nominative neuter singular as verbal noun) — here functions as object/result of 'kurvanti'
    • धर्माचारविहीनानाम् — षष्ठी बहुवचन (of those devoid of dharma-conduct)
    • द्रविणम् — (subject/predicate noun) neuter singular — "धन"
    • मलसञ्चयः — पुरुष-nominative singular — predicate: "a heap of filth" — stylistically equated to धन (i.e., their wealth = heap of filth)
  3. शैलीगत उपकरण

    • विरुद्धार्थक तुलना (Antithesis/contrast): सज्जन-धर्मार्जन व बनाम धर्महीनों के धन का तुलना।
    • सारगर्भित संक्षेप (Ellipsis): द्वितीय पंक्ति में 'अस्ति/इव' छूटकर अर्थ पूरा होता है — एक सशक्त नीति-निष्कर्ष।

6. आधुनिक सन्दर्भ (Contemporary relevance & practical meaning)

  1. नीतिक्रम में धन का स्रोत महत्त्वपूर्ण है

    • आज के समय में भी "कैसे कमाया गया धन" का नैतिक मूल्य सबसे महत्वपूर्ण है। धन यदि धर्म, ईमानदारी, न्याय और प्रयोजन के लिये कमाया गया है (उदा. सार्वजनिक कल्याण, दान, सामाजिक सेवा), तो वह पुण्यकारी माना जाता है।
    • परन्तु यदि धन अनैतिक तरीके (कदाचार, भ्रष्टाचार, ठगी, शोषण) से अर्जित हो — उसका मूल्य समाज के दृष्टिकोण से 'गंदा' ही माना जाएगा। श्लोक यही धारणा प्रकट करता है।
  2. समाज और स्थिरता

    • धर्मोचित उपार्जन (ethical earning) सामाजिक स्थिरता और विश्वास बनाता है; पर अनैतिक धन लंबे समय में समाज के लिये हानिकारक और अपवित्र है — ठीक उसी तरह जैसा श्लोक में "मलसञ्चयः" कहा गया है।
  3. आधुनिक उदाहरण (सारगर्भित, सामान्य संदर्भ)

    • आदर्शतः कंपनियाँ/व्यक्ति जो लाभ केवल अपना हित देखकर और दूसरों का शोषण कर बनाते हैं — उनका “धन” सामाजिक दृष्टि से निंदनीय माना जा सकता है।
    • जबकि वे लोग/संस्थाएँ जो धर्म/न्याय/परहित के लिये धन अर्जित कर उसे सही दिशा में उपयोग करती हैं (दान, समाजसेवा, शिक्षा), उनका धन सम्मानीय है।

नोट: यह विश्लेषण सामान्य नीति-दृष्टि देता है—किसी विशेष व्यक्ति/संस्था पर आरोप नहीं लगाता।


7. संवादात्मक नीति-कथा (Short moral dialogue)

स्थान: बाजार के पास एक छोटी चौपाल — वृद्ध नीतिज्ञ और युवा व्यापारी का संवाद।

युवक (व्यापारी): गुरुजी, मैंने कुछ ऐसा व्यापार किया जिससे जल्दी पैसा आया — क्या गर्व करूँ?
गुरु: बेटा, क्या वह धन जनहित, सत्य और धर्म के अनुकूल है?
युवक: नहीं — मैंने कुछ समझौते छुपकर किये।
गुरु: तब वह धन तुम्हारे लिये क्या है? बेशक तात्कालिक सुख देगा — पर वह किसी दिन हीनता, भय और सामाजिक कलंक लेकर आएगा। श्लोक कहता है — धर्मार्थ अर्जित धन पुण्य का साधन है; धर्महीनों का धन तो मलसञ्चय है।
युवक (विचार कर): मैं अब धन अर्जन के तरीके बदलूँगा — ईमानदारी और परहित के साथ।

नीति: धरोहर केवल धन नहीं — उसका स्रोत और प्रयोजन भी माना जाता है।


8. निष्कर्ष (Conclusion)

  • मुख्य संदेश: धन का वास्तविक मूल्य उसके अर्जन के नैतिक आधार पर निर्भर करता है — धर्मार्थ प्रयत्न से अर्जित धन पुण्य और सम्मान का साधन है; पर धर्म-आचारविहीन तरीकों से हुआ धन अन्ततः केवल "मलसञ्चय" (अशुद्ध संचय) है।
  • व्यवहारिक सीख: आत्म-प्रतिष्ठा और नैतिकता के साथ कमाइए; यदि धन का उपयोग धर्म, ज्ञान, परोपकार और समाज-कल्याण में होगा तभी वह समर्थ और पुण्यकारी सिद्ध होता है। अन्यथा धन बाह्य रूप से लाभकारी दिखे परन्तु आंतरिक और सामाजिक दृष्टि से 'अशुद्ध' ही रहेगा।


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