लोभ और बुद्धि : Greed Destroys Intellect and Peace – लोभ से उत्पन्न तृष्णा और उसका दुःख
1) श्लोक (देवनागरी)
2) Transliteration (IAST) और सरल रोमन
IAST: lobhena buddhiś calati lobho janayate tṛṣām | tṛṣārto duḥkham āpnoti paratreha ca mānavaḥ ||
सरल रोमन: lobhena buddhiś chalati, lobho janayate trishām. trishārto duḥkham āpnoti paratreha cha mānavaḥ.
(IAST में ś = श/ष, ṛ = ऋ, ṃ = अनुनासिक का संकेत।)
3) हिन्दी अनुवाद (दो स्तर — शाब्दिक और भावपूर्ण)
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लोभ और बुद्धि : Greed Destroys Intellect and Peace – लोभ से उत्पन्न तृष्णा और उसका दुःख |
4) शब्दार्थ (प्रत्येक शब्द का सरल अर्थ)
- लोभेन — लोभ (मोह/लालच) के द्वारा / लोभ से (instrumental singular)
- बुद्धिः — विवेक, बुद्धि, समझ (nominative singular)
- चलति (चालति) — चलना, विचलित होना; यहाँ = भटकती है / विचलित हो जाती है (3rd pers. sing. pres.)
- लोभो — लोभः (nominative) — लालच / लालसा (subject of next कर्म)
- जनयते — उत्पन्न करता है / पैदा करता है (3rd pers. sing. pres.)
- तृषाम् — तृषा (इच्छा/तृष्णा) का बहुवचन-अक्षर (acc. pl.) — न बुझने वाली कामनाएँ / तृष्णाएँ
- तृषार्तः — तृषा (इच्छा) से आक्रान्त/पीड़ित; (tṛṣā + ārtaḥ) — इच्छासंकटग्रस्त व्यक्ति (nom. sing.)
- दुःखम् — दुःख (accusative sing.) — कष्ट/पीड़ा
- आप्नोति — प्राप्त करता है / भोगता है (3rd pers. sing. pres.)
- परत्रे — परत्र = अन्यत्र / बाद में / परलोक में / भविष्य में (locative/adv)
- इह (संयुक्त रूप परत्रेह) — इह = यहाँ
- च — और
- मानवः — मनुष्य (subject)
(नोट: परत्रेह = परत्रे + इह — अर्थ: ‘अन्यत्र और यहाँ’ यानी ‘अब भी और बाद में’ — यथार्थार्थ में “अब और बाद में”।)
5) व्याकरणात्मक विश्लेषण (पंक्ति-दर-पंक्ति)
लोभेन बुद्धिः चलति
— यहाँ लोभेन (instrumental) क्रिया का कारण बताता है: “लोभ से बुद्धि/विवेक विचलित हो जाता है”। बुद्धिः कर्ता (nominative), चलति क्रिया (लिट्-वर्तनी वर्तमान-पुरुष-एकवचन)।
लोभो जनयते तृषाम्
— यहाँ लोभो (नामी, लोभः) कर्ता है और जनयते (वर्तमान) क्रिया; तृषाम् (तृषा-बहु./acc.) कर्म है। व्याकरणगत रूप से अर्थ: “लोभ (कारण) तृषा (परिणाम) उत्पन्न करता है” — या सहज भाषा में: “लोभ से तृष्णाएँ पैदा होती हैं।”तृषार्तो दुःखम् आप्नोति
— तृषार्तः (nom.) = तृषा से पीड़ित व्यक्ति; दुःखम् (acc.) = दुःख; आप्नोति क्रिया = प्राप्त करता/भोगता है।
परत्रेह च मानवः
— वाक्य-विभाजन: “परत्रे हि च मानवः” — यानी मानवः परत्रे (अन्यत्र/भविष्य में) तथा इह (यहाँ/वर्तमान में) दुःख पाता है। च = तथा/और। संपूर्ण वाक्य: “तृषार्तः (जो चाहत से ग्रसित है) दुःख प्राप्त करता है — अब यहाँ भी और अन्यत्र/भविष्य में भी।”मोटा-चित्र व्याकरण का: श्लोक सरल, स्पष्ट समुच्चय-क्रिया वाक्य है — कारण (लोभेन) → प्रभाव (बुद्धि-चालन), कारण (लोभः) → परिणाम (तृषा), तृषा से पीड़ित व्यक्ति → दुःख (अब और बाद में)।
(याद रखें: संस्कृत में वाक्य क्रम लचीला है; पर पाठार्थ वही रहता है।)
6) श्लोक का अर्थ (संक्षेप में, अंग्रेज़ी में भी)
7) आधुनिक सन्दर्भ (कहने का तात्पर्य — contemporary relevance)
- उपभोक्तावाद (consumerism): विज्ञापन-संस्कृति, सोशल-मीडिया ट्रेंड्स और ‘अभी चाहिए’ वाली संस्कृति लोभ को प्रोत्साहित करती है; इससे मानसिक असमाधान (tṛṣā) बढ़ता है।
- लत / addictive behaviour: लोभ-प्रेरित तृष्णाएँ (जैसे अनियंत्रित खरीददारी, गैंबलिंग, सोशल-लाइक की चाह) मनुष्य को कष्ट, कर्ज, तनाव और संबंधों में विघ्न देती हैं।
- मानसिक स्वास्थ्य: लगातार चाहनाएँ (तृष्णा) चिंता, अधीरता, नींद का अभाव और अवसाद का कारण बन सकती हैं — “अब और भविष्य दोनों जगह” तनाव रहता है।
- नैतिक-राजनीतिक: सत्ता लोभ, धन-लोलुपता, या प्रतिष्ठा हेतु किए गए निर्णय समाज व संस्थाओं को भी हानि पहुँचाते हैं; व्यक्तिगत लोभ का सामाजिक प्रभाव बड़ा होता है।
- व्यावहारिक सुझाव: संयम (dam), विवेक (buddhi), निरीक्षण (mindfulness), और दीर्घकालीन लक्ष्य-दृष्टि तृष्णा को नियंत्रित करने में सहायक हैं।
8) संवादात्मक नीति-कथा (एक संक्षिप्त, संवाद रूप में नीति-कथा — गुरु और शिष्य)
पात्र: गुरु (श्रीरामानुज) और शिष्य (अनुज) — सरल हिन्दी संवाद।
कथा-निष्कर्ष: लोभ बुद्धि को वश में कर लेता है; थोड़ी सी प्रतीक्षा-बुद्धि और संतोष तृष्णा को बुझा देती है और दुःख से बचाती है।
9) व्यवहारिक (प्रायोगिक) उपाय — कैसे इस श्लोक को आजाना प्रबंधित करें
- विचार की अस्थायी दूरी: चाहत आने पर तुरंत निर्णय न लें — 24–72 घंटे का विलम्ब कर लें।
- आवश्यकता बनाम इच्छा का लेखा-जोखा: लिखें — यह ‘ज़रूरी’ है या ‘इच्छा’ ? तीन मानदण्ड: उपयोगिता, दीर्घकालिक मूल्य, वित्तीय योग्यता।
- ध्यान/माइंडफुलनेस अभ्यास: त्वरित इच्छा के क्षणों में श्वास-मंत्र/ध्यान से तृष्णा का अभ्यस्त व्यवहार बदला जा सकता है।
- संतोष-सूत्र (gratitude list): रोज़ कुछ उन चीज़ों को लिखें जिनसे आप संतुष्ट हैं — यह तृष्णा घटाता है।
- लघु-व्रत / संयम का अभ्यास: कुछ समय के लिए सोशल-मीडिया/शॉपिंग-बैन रखना, व्रत रखना या दान करना लोभ कम करता है।
10) नैतिक-दार्शनिक निष्कर्ष (संक्षेप में)
इस श्लोक का मूल उपदेश सरल पर अमूल्य है: लोभ बुद्धि को भटका कर तृष्णा उत्पन्न करता है; तृष्णा मनुष्य को अब भी और बाद में भी दुःख देती है। अतः बुद्धि का विकास, संयम और संतोष—ये न केवल व्यक्तिगत शान्ति के स्रोत हैं, बल्कि समाज और परिवार के स्थायित्व के भी आधार हैं।