लोभ और बुद्धि : Greed Destroys Intellect and Peace – लोभ से उत्पन्न तृष्णा और उसका दुःख

Sooraj Krishna Shastri
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लोभ (Greed) मनुष्य की बुद्धि को विचलित कर देता है और अंतहीन तृष्णा (unending desire) को जन्म देता है। “लोभेन बुद्धिश्चलति लोभो जनयते तृषाम्” यह संस्कृत श्लोक हमें बताता है कि जब विवेक पर लोभ का आवरण पड़ जाता है, तो व्यक्ति की सोच असंतुलित हो जाती है। लालच से उत्पन्न इच्छाएँ वर्तमान और भविष्य — दोनों में दुःख लाती हैं। इस लेख में श्लोक का संस्कृत पाठ, अंग्रेजी ट्रान्सलिटरेशन, हिन्दी अर्थ, व्याकरणिक विश्लेषण, आधुनिक संदर्भ और एक नीति-कथा सहित विस्तृत विवेचन प्रस्तुत है। जानिए कैसे लोभ बुद्धि को भ्रमित करता है और संतोष ही जीवन की शांति का वास्तविक आधार है।

लोभ और बुद्धि : Greed Destroys Intellect and Peace – लोभ से उत्पन्न तृष्णा और उसका दुःख


1) श्लोक (देवनागरी)

लोभेन बुद्धिश्चलति लोभो जनयते तृषाम् ।
तृषार्तो दुःखमाप्नोति परत्रेह च मानवः ॥


2) Transliteration (IAST) और सरल रोमन

IAST: lobhena buddhiś calati lobho janayate tṛṣām | tṛṣārto duḥkham āpnoti paratreha ca mānavaḥ ||

सरल रोमन: lobhena buddhiś chalati, lobho janayate trishām. trishārto duḥkham āpnoti paratreha cha mānavaḥ.

(IAST में ś = श/ष, ṛ = ऋ, ṃ = अनुनासिक का संकेत।)


3) हिन्दी अनुवाद (दो स्तर — शाब्दिक और भावपूर्ण)

शाब्दिक (literal):
लोभ से बुद्धि विचलित होती है; लोभ (ही) तृषा (लंबी/अतृप्त इच्छाएँ) को उत्पन्न करता है। तृषा-पीड़ित व्यक्ति दुःख प्राप्त करता है — यहाँ भी तथा परत्र (बाद में/वहीं पर भी)।

लोभ और बुद्धि : Greed Destroys Intellect and Peace – लोभ से उत्पन्न तृष्णा और उसका दुःख
लोभ और बुद्धि : Greed Destroys Intellect and Peace – लोभ से उत्पन्न तृष्णा और उसका दुःख

भावपूर्ण (fluent):
लोभ मन की विवेकबुद्धि को भटकाता है और इसी लोभ से अनन्त, न बुझने वाली कामनाएँ उठती हैं। जो व्यक्ति इन कामनाओं से पीड़ित होता है, वह अब भी और भविष्य में भी दुःख भोगता है।


4) शब्दार्थ (प्रत्येक शब्द का सरल अर्थ)

  • लोभेन — लोभ (मोह/लालच) के द्वारा / लोभ से (instrumental singular)
  • बुद्धिः — विवेक, बुद्धि, समझ (nominative singular)
  • चलति (चालति) — चलना, विचलित होना; यहाँ = भटकती है / विचलित हो जाती है (3rd pers. sing. pres.)
  • लोभो — लोभः (nominative) — लालच / लालसा (subject of next कर्म)
  • जनयते — उत्पन्न करता है / पैदा करता है (3rd pers. sing. pres.)
  • तृषाम् — तृषा (इच्छा/तृष्णा) का बहुवचन-अक्षर (acc. pl.) — न बुझने वाली कामनाएँ / तृष्णाएँ
  • तृषार्तः — तृषा (इच्छा) से आक्रान्त/पीड़ित; (tṛṣā + ārtaḥ) — इच्छासंकटग्रस्त व्यक्ति (nom. sing.)
  • दुःखम् — दुःख (accusative sing.) — कष्ट/पीड़ा
  • आप्नोति — प्राप्त करता है / भोगता है (3rd pers. sing. pres.)
  • परत्रे — परत्र = अन्यत्र / बाद में / परलोक में / भविष्य में (locative/adv)
  • इह (संयुक्त रूप परत्रेह) — इह = यहाँ
  • — और
  • मानवः — मनुष्य (subject)

(नोट: परत्रेह = परत्रे + इह — अर्थ: ‘अन्यत्र और यहाँ’ यानी ‘अब भी और बाद में’ — यथार्थार्थ में “अब और बाद में”।)


5) व्याकरणात्मक विश्लेषण (पंक्ति-दर-पंक्ति)

पहली पंक्ति:
लोभेन बुद्धिः चलति — यहाँ लोभेन (instrumental) क्रिया का कारण बताता है: “लोभ से बुद्धि/विवेक विचलित हो जाता है”। बुद्धिः कर्ता (nominative), चलति क्रिया (लिट्-वर्तनी वर्तमान-पुरुष-एकवचन)।
लोभो जनयते तृषाम् — यहाँ लोभो (नामी, लोभः) कर्ता है और जनयते (वर्तमान) क्रिया; तृषाम् (तृषा-बहु./acc.) कर्म है। व्याकरणगत रूप से अर्थ: “लोभ (कारण) तृषा (परिणाम) उत्पन्न करता है” — या सहज भाषा में: “लोभ से तृष्णाएँ पैदा होती हैं।”

दूसरी पंक्ति:
तृषार्तो दुःखम् आप्नोतितृषार्तः (nom.) = तृषा से पीड़ित व्यक्ति; दुःखम् (acc.) = दुःख; आप्नोति क्रिया = प्राप्त करता/भोगता है।
परत्रेह च मानवः — वाक्य-विभाजन: “परत्रे हि च मानवः” — यानी मानवः परत्रे (अन्यत्र/भविष्य में) तथा इह (यहाँ/वर्तमान में) दुःख पाता है। = तथा/और। संपूर्ण वाक्य: “तृषार्तः (जो चाहत से ग्रसित है) दुःख प्राप्त करता है — अब यहाँ भी और अन्यत्र/भविष्य में भी।”

मोटा-चित्र व्याकरण का: श्लोक सरल, स्पष्ट समुच्चय-क्रिया वाक्य है — कारण (लोभेन) → प्रभाव (बुद्धि-चालन), कारण (लोभः) → परिणाम (तृषा), तृषा से पीड़ित व्यक्ति → दुःख (अब और बाद में)।

(याद रखें: संस्कृत में वाक्य क्रम लचीला है; पर पाठार्थ वही रहता है।)


6) श्लोक का अर्थ (संक्षेप में, अंग्रेज़ी में भी)

English (concise):
Greed disturbs a person’s discerning intellect and begets insatiable craving. The one afflicted by craving suffers pain — both now and later.


7) आधुनिक सन्दर्भ (कहने का तात्पर्य — contemporary relevance)

  • उपभोक्तावाद (consumerism): विज्ञापन-संस्कृति, सोशल-मीडिया ट्रेंड्स और ‘अभी चाहिए’ वाली संस्कृति लोभ को प्रोत्साहित करती है; इससे मानसिक असमाधान (tṛṣā) बढ़ता है।
  • लत / addictive behaviour: लोभ-प्रेरित तृष्णाएँ (जैसे अनियंत्रित खरीददारी, गैंबलिंग, सोशल-लाइक की चाह) मनुष्य को कष्ट, कर्ज, तनाव और संबंधों में विघ्न देती हैं।
  • मानसिक स्वास्थ्य: लगातार चाहनाएँ (तृष्णा) चिंता, अधीरता, नींद का अभाव और अवसाद का कारण बन सकती हैं — “अब और भविष्य दोनों जगह” तनाव रहता है।
  • नैतिक-राजनीतिक: सत्ता लोभ, धन-लोलुपता, या प्रतिष्ठा हेतु किए गए निर्णय समाज व संस्थाओं को भी हानि पहुँचाते हैं; व्यक्तिगत लोभ का सामाजिक प्रभाव बड़ा होता है।
  • व्यावहारिक सुझाव: संयम (dam), विवेक (buddhi), निरीक्षण (mindfulness), और दीर्घकालीन लक्ष्य-दृष्टि तृष्णा को नियंत्रित करने में सहायक हैं।

8) संवादात्मक नीति-कथा (एक संक्षिप्त, संवाद रूप में नीति-कथा — गुरु और शिष्य)

पात्र: गुरु (श्रीरामानुज) और शिष्य (अनुज) — सरल हिन्दी संवाद।

गुरु: अनुज, बाजार से लौटते समय क्यों शिथिल लगे हो?
अनुज: गुरुजी, नया फोन देखकर ही मन बेचैन हो गया — अब पुराना कुछ ही लगे।
गुरु: यही लोभ है — लोभेन बुद्धि विचलित होती है।
अनुज: मतलब? कैसे?
गुरु: जब लोभ बढ़ता है, वे अनेक छोटी-बड़ी इच्छाएँ जन्म लेती हैं — तृषा। तृषार्त: जो इन तृष्णाओं से ग्रस्त है, उसे शीघ्र या बाद में दुःख भोगना पड़ता है — कर्ज, चिंता, समय की बर्बादी।
अनुज: पर गुरुजी, क्या थोड़ा आनंद पाना गलत है?
गुरु: आनंद में दोष नहीं; पर फर्क है— संतोष और अतृप्त लालसा में। संतोष से जीवन सरल और शांत रहता है; अतृप्त इच्छा से मन व्याकुल और भविष्य असुरक्षित बनता है।
अनुज: तो क्या करना चाहिए?
गुरु: पहले अपनी वास्तविक आवश्यकता पूछो — क्या यह जरूरी है? दो: (1) एक रुककर सोचो (defer), (2) वैकल्पिक संतोष देखें — अनुभवों, ज्ञान, सेवा। संयम साधो; विवेक से लोभ को नियंत्रित करो।
अनुज: मैं प्रयास करूँगा — पहले खरीदने से पहले 7 दिन प्रतीक्षा करूँगा।
गुरु: अच्छा उपाय। याद रखो: लोभ अस्थायी आनंद देता है, पर तृष्णा लंबी पीड़ा।

कथा-निष्कर्ष: लोभ बुद्धि को वश में कर लेता है; थोड़ी सी प्रतीक्षा-बुद्धि और संतोष तृष्णा को बुझा देती है और दुःख से बचाती है।


9) व्यवहारिक (प्रायोगिक) उपाय — कैसे इस श्लोक को आजाना प्रबंधित करें

  1. विचार की अस्थायी दूरी: चाहत आने पर तुरंत निर्णय न लें — 24–72 घंटे का विलम्ब कर लें।
  2. आवश्यकता बनाम इच्छा का लेखा-जोखा: लिखें — यह ‘ज़रूरी’ है या ‘इच्छा’ ? तीन मानदण्ड: उपयोगिता, दीर्घकालिक मूल्य, वित्तीय योग्यता।
  3. ध्यान/माइंडफुलनेस अभ्यास: त्वरित इच्छा के क्षणों में श्वास-मंत्र/ध्यान से तृष्णा का अभ्यस्त व्यवहार बदला जा सकता है।
  4. संतोष-सूत्र (gratitude list): रोज़ कुछ उन चीज़ों को लिखें जिनसे आप संतुष्ट हैं — यह तृष्णा घटाता है।
  5. लघु-व्रत / संयम का अभ्यास: कुछ समय के लिए सोशल-मीडिया/शॉपिंग-बैन रखना, व्रत रखना या दान करना लोभ कम करता है।

10) नैतिक-दार्शनिक निष्कर्ष (संक्षेप में)

इस श्लोक का मूल उपदेश सरल पर अमूल्य है: लोभ बुद्धि को भटका कर तृष्णा उत्पन्न करता है; तृष्णा मनुष्य को अब भी और बाद में भी दुःख देती है। अतः बुद्धि का विकास, संयम और संतोष—ये न केवल व्यक्तिगत शान्ति के स्रोत हैं, बल्कि समाज और परिवार के स्थायित्व के भी आधार हैं।


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