आत्मा का स्वरूप और सच्चा आनन्द | True Bliss of Atma and Parmatma Relation

Sooraj Krishna Shastri
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आत्मा सदैव आनन्दरूप है। सुख-दुःख केवल मन के धर्म हैं, आत्मा का नहीं। गीता व वेदांत के सन्दर्भों सहित जानें कि सच्चा आनन्द बाहर नहीं बल्कि हमारे भीतर आत्मस्वरूप और परमात्मा के सम्बन्ध में है।”

आत्मा का स्वरूप और सच्चा आनन्द | True Bliss of Atma and Parmatma Relation


🌿 आत्मा का स्वरूप और आनन्द का रहस्य 🌿

1. आत्मा और मन का भेद

हे पार्थ! तुम परमात्मा के अंश हो। परमात्मा का स्वरूप आनन्द है और आत्मा भी आनन्दस्वरूप ही है। सुख और दुःख आत्मा के धर्म नहीं हैं, वे केवल मन के धर्म हैं।

जैसे जल का स्वभाव शीतलता है, परन्तु अग्नि के संसर्ग से उसमें गर्मी प्रतीत होती है, वैसे ही आत्मा में सुख-दुःख मन के संसर्ग से भासते हैं।

शास्त्र में कहा गया है—

परस्पराध्यासवशात् स्यादन्तःकरणात्मनोः।
एकीभावाभिमानेन परात्मा दुःखभागिव ॥

अर्थात् अन्तःकरण और आत्मा के परस्पर आध्यास के कारण, एक भाव मान लेने से आत्मा भी दुःख का भागी प्रतीत होता है।

आत्मा का स्वरूप और सच्चा आनन्द | True Bliss of Atma and Parmatma Relation
आत्मा का स्वरूप और सच्चा आनन्द | True Bliss of Atma and Parmatma Relation

2. सुख-दुःख का क्षणभंगुर स्वरूप

सुख और दुःख दोनों अस्थायी हैं। सुख टिकता नहीं, दुःख भी स्थायी नहीं। आत्मा का वास्तविक धर्म सुख-दुःख से परे है। आत्मा का असली धर्म है—नित्य आनन्द।


3. बाह्य वस्तुओं में आनन्द का भ्रम

जीव अपने सहज आनन्द को न पहचानकर बाहर संसार की वस्तुओं में आनन्द ढूँढ़ता है। किन्तु यदि वस्तुओं में आनन्द होता तो वह सबको, हर समय, समान रूप से अनुभव होता।

सरस बंगला बुखार में सुख नहीं देता। स्वादिष्ट श्रीखण्ड-पूड़ी रोगावस्था में विषमय प्रतीत होती है। मृत्यु का समाचार मिलते ही मनपसन्द भोजन भी अरुचिकर लगने लगता है।

यदि वास्तव में श्रीखण्ड-पूड़ी में आनन्द होता तो बीमारी या शोक के समाचार से वह आनन्द क्यों गायब हो जाता? इससे सिद्ध होता है कि बाह्य पदार्थों में आनन्द नहीं है।


4. मन और इन्द्रियों का खेल

जब इन्द्रियाँ मनपसन्द विषय प्राप्त करती हैं, मन थोड़े समय के लिये एकाग्र हो जाता है। उस एकाग्रता में आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है और आनन्द का अनुभव होता है।

परन्तु यह अनुभव स्थायी नहीं है, क्योंकि यह बाह्य विषयों पर आधारित है।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं—

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसंस्मृतम् ॥

अर्थात् विषय और इन्द्रियों का संयोग आरम्भ में अमृत जैसा लगता है, परन्तु परिणाम में वह विष के समान दुःखदायी होता है।


5. निद्रा में शान्ति और आनन्द का रहस्य

निद्रा का अनुभव सबसे बड़ा प्रमाण है। निद्रा में न भोजन है, न धन है, न भोग-विलास है, फिर भी मनुष्य शान्ति और आनन्द का अनुभव करता है।

निद्रा में मन और इन्द्रियाँ विषयों से हटकर अन्दर स्थित चेतन परमात्मा में लीन हो जाती हैं। जब जगत का विस्मरण होता है, तब आत्मानन्द प्रकट होता है।

राजा हो या भिखारी, यदि नींद न आये तो बेचैनी बढ़ती है। इसका कारण यही है कि निद्रा में आत्मानन्द का अनुभव मिलता है।


6. जाग्रत अवस्था में आनन्द की सम्भावना

यदि मनुष्य जाग्रत अवस्था में भी संसार का विस्मरण करके परमात्मा में मन को स्थिर कर दे तो उसे निरन्तर आनन्द की अनुभूति होगी।

जैसे दीपक तब तक जलता है जब तक उसमें तेल है, वैसे ही मन तब तक व्यग्र रहता है जब तक उसमें संसार के विषय भरे रहते हैं। विषय समाप्त होते ही दीपक की तरह मन भी शान्त हो जाता है और आत्मानन्द प्रकट हो जाता है।


7. सच्चा निष्कर्ष

आनन्द आत्मा का सहज स्वरूप है। संसार के विषय केवल क्षणिक सुख देते हैं, किन्तु स्थायी आनन्द नहीं।

आनन्द बाहर से आता नहीं, भीतर से प्रकट होता है। जब जीव ब्रह्म-सम्बन्ध में प्रवेश करता है, तभी सच्चा आनन्द प्राप्त होता है।


✨ उपसंहार ✨

हे मानव! तुम परमात्मा के अंश हो, तुम आनन्दरूप हो। सुख और दुःख केवल भ्रान्तियाँ हैं, परन्तु आनन्द ही तुम्हारा सच्चा स्वरूप है। जब तुम अन्तर्मुख होकर परमात्मा का अनुभव करोगे, तभी तुम्हें वह नित्य शान्ति और आनन्द मिलेगा जिसकी तुम्हें जीवन भर भूख है।



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