संसार के सारे कार्य ज्योतिष के द्वारा ही चलते हैं, ज्योतिष व्यावहारिक ज्ञान कराता है, यथा-आकाश के कौन ग्रह- नक्षत्र कहाँपर स्थित हैं, उनके बीच की दूरी क्या है, उनकी गति क्या है, कितने समयमें अपना परिभ्रमण करते हैं, किस ग्रहके पाससे कब गुजरेंगे, उन ग्रहों में कितनी ज्योति है, उस ज्योति प्रकाश की गति क्या है और उस प्रकाश का कहाँ पर, किस-किस पर क्या प्रभाव पड़ता है इत्यादि ।
संसार की सभी औषधियाँ-लता, पौधे चन्द्रमा के अनुसार उत्पन्न होते हैं। समुद्र की ज्वारगति भी चन्द्रमा की गति के अनुसार रहती है। हर जीव चराचर पर किस ग्रह का कब, कितना प्रभाव आयेगा, उसके अनुसार उसका स्वास्थ्य निर्भर है।
ग्रह-नक्षत्रानुसार दिशाओं का ज्ञान होता है। ध्रुवतारा हमेशा उत्तर में रहता है। सूर्य हमेशा पूर्व दिशा में उगता है। संसार का कर्म, जीवन-मरणरहस्य, जीवन के सुख-दुःख के सम्बन्ध में पूर्ण प्रकाश ज्योतिष ही कराता है। फलकथन के लिये कुण्डली की प्रक्रिया ज्योतिष का मूल है। कुण्डली- निर्माणके लिये भारतीय ज्योतिषके त्रिस्कन्धान्तर्गत होरा, गणित तथा संहिताका ज्ञान होना आवश्यक है। गणित और फलित ज्योतिष के दो क्रियात्मक सिद्धान्त है।
जन्म-कुण्डली निर्माण के लिये जन्म समय, जन्म- स्थान, जन्मदिन, जन्म-सम्वत् तथा उस स्थान के पंचांग का ज्ञान होना आवश्यक है। जन्मपत्री के निर्माण द्वारा व्यक्ति की उत्पत्ति के समय ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति पर से जीवन का सुख-दुःख का फल निकाला जाता है। यहाँ जन्मकुण्डली- निर्माण की कुछ बातें संक्षेप में प्रस्तुत हैं-
( १ ) इष्टकाल -
जातक की जन्मकुण्डली बनाने के लिये सर्वप्रथम इष्टकाल जरूरी है। इष्टकाल जितना सही और सूक्ष्म होगा, जन्मपत्र के फलादेश उतने ही सटीक मिलेंगे। सूर्योदय से लेकर जन्मसमय तक का जो समय है, वह इष्टकाल कहलाता है। जहाँ का इष्टकाल बनाना हो, उस स्थान का सूर्योदय-समय सही होना जरूरी है। सूर्योदय- सूर्यास्त का समय पंचांग में लिखा रहता है । दिनमान भी पंचांग में दिया रहता है। पंचांग उसी प्रदेश का काम में लेना चाहिये, जहाँ जातक जन्मा हो, तब ही जन्मपत्र सही बन पायेगा। जन्म समय का देशान्तर आदि संस्कार करके भी कुण्डली बनती है।
जन्म- समय में से वहाँ का सूर्योदय-समय घटाकर ढाई से गुणा करके प्राप्त घटी-पल इष्टकाल कहलाता है । समय की जानकारी के लिये रेलवे टाइम को काम में ले। जैसे-रेलवे में २४ घंटे होते हैं, वैसे ही १२ बजेके बादके समयको १३-१४-१५ बजे माने ।
(२) भयात-भभोगका साधन -
जन्मपत्री जहाँ की बनानी है, वहाँ का पंचांग ले, यही सही रहेगा, जिस दिन का जन्म है, उस दिन कौन-सा नक्षत्र है और वह कितने घटी- पलका मान रखता है, यह पंचांगमें देखना चाहिये।
यदि इष्टकालसे जन्म-नक्षत्रका घटी-पल कम हो तो वह नक्षत्र गत और आगामी नक्षत्र जन्म-नक्षत्र रहेगा तथा जन्म नक्षत्रका घटी-पल, इष्टकालके घटी-पलसे अधिक हैं तो जन्म नक्षत्रसे पहलेका नक्षत्रगत और वर्तमान नक्षत्र जन्मनक्षत्र कहलायेगा।
गत नक्षत्रके घटी-पलोंको ६० मेंसे घटानेपर जो शेष आये, उसे दो जगह लिख ले। एक स्थानपर इष्टकालको जोड़ दे - यह भयात होगा और दूसरे स्थानपर जन्म नक्षत्रके घटी-पल जोड़ दे-यह भभोग होगा। 'भ' नक्षत्रको कहते हैं।
(३) लग्न-निर्धारण -
बालकका जब जन्म हुआ, उस समय पूर्व दिशामें किस राशिका उदयमान था, जिस राशिका समय-काल था, वही जन्म लग्न है। जन्म कुण्डलीमें सारा खेल लग्नका है। लग्न सही तो कुण्डलीका फल सही रहेगा।
लग्न-साधनके लिये अपने स्थानका उदयमान जानना जरूरी है। लग्न - शुद्धिके लिये शास्त्रानुसार नियम बताये गये हैं, उनसे लग्नकी बारीकीसे जाँच करके ही लग्नका निर्धारण करे।
(४) ग्रहस्पष्ट करना-
जिस दिन बालकका जन्म हुआ, उसकी जन्मपत्रीका इष्टकाल सिद्ध हो गया, वह लिखा हुआ है। भयात-भभोग सिद्ध है। लग्नका निर्धारण हो गया है, अब उसके ग्रह अवश्य स्पष्ट कर लेने चाहिये; क्योंकि ग्रहोंके स्पष्ट मानके बिना फलादेश- निर्धारण करना गलत रहेगा। ग्रहस्पष्टका मतलब है, ग्रहका राशिमान क्या है? दूसरा कारण यह भी है कि कौन ग्रह किस राशिमें कितने अंश, घटी-पलका है, उसके अनुसार जन्मकुण्डलीके द्वादश भावोंमें ग्रहोंकी स्थापना ग्रहमान राश्यादि ग्रह ज्ञात होनेपर ही हो सकती है। अतः प्रत्येक जन्म कुण्डलीके जन्मांग चक्रसे पूर्व ग्रहस्पष्ट चक्र लिखना आवश्यक है। पंचांगोंमें ग्रहस्पष्ट पंक्ति लिखी रहती है, यह अलग-अलग पंचांगोंमें अलग-अलग रहती है। किसीमें अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमाकी ग्रहस्पष्ट पंक्तियाँ रहती हैं। आजकल दैनिक ग्रहस्पष्ट भी पंचांग लिखने लगे हैं। पंचांगमें प्रातः काल सूर्योदयके समयका ग्रहस्पष्ट लिखा मिलता है। ग्रह प्रातः सूर्योदयके समय किस राशिमें, कितने अंश, कला- विकलाके हैं, उस ग्रहकी चालन गति क्या है, किसे नक्षत्र में है, मार्गी है, वक्री है, यह लिखा मिलता है। जन्मकालिक ग्रहस्पष्ट करनेके लिये जन्म सूर्योदयके बाद कितने घंटे बादका है यह अन्तर करके दैनिक ग्रहगतिसे गुणाकर ६० का भाग देकर अंश-कला-विकला रूप निकालकर अलगसे एक ग्रहस्पष्ट चक्रमें लिखकर रख ले और जन्म कुण्डलीमें ग्रहस्थापन करे।
(५) जन्मपत्र लिखनेकी विधि
जिस बालककी जन्मपत्री लिखनी हैं, उसमें सर्वप्रथम अपने इष्टदेव, श्रीगणेशजी तथा गुरुदेवकी वन्दनाके और मांगलिक श्लोक लिखे।
फिर किस विक्रम संवत् में, किस शक सम्वत् में, किस मासमें, किस पक्षमें, किस तिथिमें, किस चन्द्रवारमें, किस नक्षत्रमें किस अँगरेजी तारीखमें, किस समयमें (प्रातः, मध्याह्न, सायंकाल अथवा रात्रिकाल) में जन्म है - यह सब पूर्ण सावधानीसे सही-सही लिख ले। अब पंचांगकी सहायतासे उस दिनकी तिथिका घटी-पल- मान, नक्षत्रका घटी-पल-मान, योगका घटी-पल-मान, उस दिनका सूर्योदय- समय, सूर्यास्त समय, दिनमान, रात्रिमान, घटी-पल आदि लिखे।
सूर्योदयादि इष्टकाल, घटीमान, चन्द्रराशिमान, बालकका जन्म किस लग्नमें हुआ, उसका मान लिखे। सूर्य किस अयनमें गोचर कर रहा है, कौन ऋतु है, कौन संवत्सर है, लिखे। बालकके पितामह, पिता, माताका नाम, वे किस जाति-धर्मके हैं, किस स्थानके निवासी हैं, कौन जिला,किस प्रान्तके हैं, किस जाति गोत्रके हैं, जन्मनक्षत्रके कौन-से चरणमें, कौनसे पायेमें जन्म है, यह सब लिखे।जन्मनक्षत्र-चरणानुसार बालकका नाम क्या रहेगा, लिखे उस जन्मराशिके अनुसार घातचक्र देखकर लिखे। जन्म- नक्षत्रानुसार विंशोत्तरी दशा किस ग्रहकी रहेगी, लिखे ।
इसके बाद जो नवग्रहस्पष्ट-चक्र लिखा था, उसे लिखकर जन्मांग कुण्डली चक्र लिख देना चाहिये। यह साधारण जन्म कुण्डली पत्रका टेवा है। टेवाका मतलब आवश्यक प्रथम सूची पत्र है, जन्मपत्र पूर्ण नहीं है। पूर्ण जन्मपत्र में बहुत सारी जानकारियाँ रहती हैं। वह अब आगे स्पष्ट करते हुए लिखा जा रहा है-
(६) भाव स्पष्ट-विधि लिखना -
भाव स्पष्ट करनके लिये सर्वप्रथम दशम भावका साधन करना चाहिये। इस भावका गणित करनेके लिये ज्योतिषका ज्ञान आवश्यक है। ज्योतिष-नियम-उपनियम, नत काल जानने आवश्यक हैं; क्योंकि नतकाल ही इष्टकाल होता है। दशम भावकी साधनिकामें नतकाल आवश्यक है, उसे ज्ञात करनेके चार नियम हैं-
(क) दिनार्धसे पूर्वका इष्टकाल है तो इष्टकालको दिनार्धमेंसे घटानेसे पूर्वनत होगा।
(ख) दिनार्धके बादका इष्टकाल है तो दिनमानमेंसे इष्टकाल घटाकर जो शेष बचा, उसको दिनार्धमेंसे घटानेसे पश्चिमनत होगा।
(ग) अर्धरात्रिसे पूर्वका इष्टकाल है तो दिनमानको इष्टकालमेंसे घटानेसे जो शेष बचा, उसे दिनार्धमें जोड़ा, वह पश्चिमनत होगा।
(घ) अर्धरात्रिके बादका इष्टकाल है तो ६० घटीमेंसे इष्टकालको घटानेसे जो शेष बचा, उसमें दिनार्ध जोड़ने पर वह पूर्वनत होगा ।
पश्चिमनत है तो भोग्य प्रकारसे, पूर्वनत है तो भुक्त प्रकारसे लंकोदयमानद्वारा लग्न-साधनके समान दशम भावका साधन कर लेना चाहिये अथवा इष्टकालमेंसे दिनार्थ घटाकर जो शेष आये, वह दशम भाव इष्ट होगा अथवा लग्न- सारणीद्वारा लग्न बनाते समय सूर्य स्पष्ट फलमें इष्टकाल जोड़नेपर जो राशि, अंश, घटी-पल आये, उसमेंसे १५ घटी शेष करनेपर जो शेष अंक है, उसे दशम सारणीसे मिलान करे, दशम सारणीमें जिस राशि-अंशका फल मिले, वही दशम लग्न रहेगा। लग्न-सारणी, दशम-सारणी अलग- अलग पंचांगोंमें अलग-अलग रहती है। अतः जिस जगहकी जन्मपत्री बनानी है, वहींका जन्म- पंचांग लेना चाहिये। ज्योतिषके हर कार्यमें गणितकी जरूरत पड़ती है, अतः गणितका ज्ञान आवश्यक है।
दशम लग्न भाव साध लिया गया, अब शेष भाव बनाते जाय। दशम भावमें छः राशि जोड़े, चतुर्थ भाव आया । चतुर्थ भावमेंसे लग्न घटाया, जो शेष आया, उसमें छः का भाग देकर षष्ठांश निकाला। अब लग्नमें षष्ठांश जोड़-जोड़कर लग्न-सन्धि निकाले और आगे-आगे षष्ठांश जोड़ते हुए षष्ठ भाव-सन्धितकका साधन कर ले।
फिर लग्न भावमें छः राशि जोड़नेपर सप्तम भाव, लग्नसन्धिमें छः राशि जोड़नेपर सप्तम भावसन्धि आयेगी। इस प्रकार षष्ठ भावसन्धितक छः राशि जोड़ते रहे तो द्वादश भाव- सन्धितक साधन हो जायगा। इस भाव, स्पष्ट- सन्धि स्पष्टको द्वादश भाव स्पष्ट चक्रमें लिख ले।
( ७ ) द्वादश भावों के नाम
जन्मकुण्डलीके द्वादश भावोंके अलग-अलग नाम हैं। लग्नभाव प्रथम भाव है, उसे तनभाव कहते हैं। दूसरे भावको धनभाव, तृतीय भावको सहजभाव, चतुर्थ भावको सुख एवं मातृभाव, पंचम भावको सुतभाव, षष्ठ भावको रिपुभाव, सप्तम भावको भार्याभाव, अष्टम भावको आयुभाव, नवम भावको भाग्यभाव तथा धर्मभाव, दशम भावको कर्म एवं पिताभाव, एकादश भावको आय भाव और द्वादश भावको व्ययभाव कहते हैं। ये जन्मकुण्डलीके द्वादश भावोंके नाम हैं।
(८) चलितचक्र ज्ञात करना
द्वादश भावमें हर भावकी राशि, अंश, कला, विकलाका ज्ञान प्राप्त हो जानेपर ग्रहस्पष्ट करनेपर कौन ग्रह किस राशिमें कितने अंश-कलाका है यह ज्ञात होनेपर, जन्मकुण्डलीके द्वादश भावोंमें ग्रह-निर्धारण कर ले तथा दोनोंका तुलनात्मक विचार करते हुए चलितचक्र बनाया जाना चाहिये। ग्रह- भावमें है या सन्धिमें है, भावस्थित ग्रहका फल पूरा होता है। सन्धिस्थित ग्रहका फल न्यून रहता है। इस प्रकार चलितचक्र कुण्डली से ग्रहके स्थानका ज्ञान हो सकता है।
(९) राशि-स्वामित्व बोध -
मेष-वृश्चिक राशिका स्वामी मंगल होता है। वृष तुलाका स्वामी शुक्र होता है। कन्या- मिथुनका स्वामी बुध रहता है। कर्कका स्वामी चन्द्रमा तथा सिंहका स्वामी सूर्य होता है। धनु-मीनका स्वामी बृहस्पति होता है। मकर कुम्भका स्वामी शनि होता है। इसके बादमें कौन ग्रह उच्चका है, कौन नीचका है, मूल त्रिकोण राशिका स्वामी कौन है, ज्ञात करना चाहिये, जो फलादेश के लिये अति आवश्यक है। सूर्य मेषराशिमें १०° अंशतक उच्च रहता है, स्वराशि सिंह है तथा तुलाके १०° अंशतक नीच रहता है। चन्द्रमाकी स्वराशि कर्क है, वृषके ३° अंशतक उच्च और वृश्चिकमें ३° अंशतक नीच होता है। मंगलकी स्वराशि मेष- वृश्चिक है। यह मकरमें २८° अंशतक उच्च, कर्क में २८° अंशतक नीच रहता है। बुधकी स्वराशि मिथुन- कन्या है। बुध कन्याराशिमें १५° अंशतक उच्च, मीनमें १५° अंशतक नीच रहता है। बृहस्पतिकी धनु-मीन स्वराशि है, बृहस्पति कर्क में ५° अंशतक उच्च तथा मकरमें ५° अंशतक नीच रहता हैं। शुक्रकी स्वराशि वृष तुला है। शुक्र मीनमें २७° अंशतक उच्च और कन्याके २७° अंशतक नीच रहता है। शनिकी स्वराशि मकर कुम्भ है। शनि तुलाके २०° अंशतक उच्च तथा मेषराशिमें २०° अंशतक नीच रहता है। राहुकी स्वराशि नहीं होती, परंतु मिथुनमें उच्च, धनुमें नीच रहता है। केतु धनुमें उच्च, मिथुनमें नीच रहता है, फलादेश करते समय इन बातोंके ज्ञानकी जरूरत रहती है।
अन्य कुण्डलियाँ
ग्रहस्पष्टकी सहायता से अन्य कुण्डलियाँ बनायी जाती हैं, जैसे -
(क) होरा कुण्डली -
१५° अंशकी एक होरा होती है, एक राशि ३०° अंशकी होती है। अतः एक राशिमें दो होरा होती हैं। विषम राशिमें प्रारम्भके १५° अंशतक सूर्यकी होरा होती है। १६° से ३०° तक चन्द्रमाकी होरा होती है। सम राशियोंमें शुरूके १५° अंशतक चन्द्रमाकी होरा होती है। बादमें १६° से ३०° अंशतक सूर्यकी होरा रहती है। होरा कुण्डली लिखनेमें पहले लग्न देखे, लग्नमें किस ग्रहकी होरा है, बादमें ग्रह स्पष्ट देखकर निर्धारण करे कि कौन ग्रह किस होराका है। लग्नमें यदि सूर्य होरा है तो कुण्डली लग्न ५ लिखा जायगा, यदि लग्न होरा चन्द्रमाकी है तो ४ लिखा जायगा।
(ख) द्रेष्काण कुण्डली -
१० अंशका एक द्रेष्काण होता है। इस प्रकार एक राशिमें ३ द्रेष्काण होते हैं। १- १० अंशतक प्रथम द्रेष्काण, ११-२० अंशतक द्वितीय द्रेष्काण एवं २१ से ३० अंशतक तृतीय द्रेष्काण होता है।
जिस किसी राशिके प्रथम द्रेष्काणमें ग्रह हो तो प्रथम द्रेष्काण उसी राशिका, दूसरा द्रेष्काण उस राशिसे पाँचवीं राशिका और तृतीय द्रेष्काण उस राशिसे नवम राशिका रहता है। यह याद कर लेना चाहिये। द्रेष्काण कुण्डली बनानेके लिये सर्वप्रथम ग्रहस्पष्ट तालिकामें लग्न जिस द्रेष्काणमें हो, वही द्रेष्काण कुण्डलीकी लग्न राशि रहेगी। लग्न-निर्धारणके बाद ग्रहस्पष्ट तालिकाका अवलोकन करते हुए ग्रह स्थापित करे।
(ग) सप्तांश कुण्डली -
एक राशिके ३० अंश होते हैं, इन अंशोंमें ७ का भाग देनेसे ४ अंश, १७ कला एवं ९ विकलाका एक सप्तांश होता है।
लग्न और ग्रहोंके सप्तांश निकालनेका नियम यह है कि सम राशियोंमें उस राशिसे सप्तम राशिसे और विषम राशियोंमें उसी राशिसे सप्तमांशकी गणना की जाती है। सर्वप्रथम लग्न-निर्धारण करे। लग्न किस राशिका कितने अंशका है और सप्तमांश किस राशिमें होगा। जिस राशिका सप्तमांश आये लग्नसंख्या वही रहेगी, जो सप्तमांश राशि आयेगी। उदाहरण-लग्न मेष राशिके २३-२५-२७ विकला है। अब सप्तमांश लग्न निर्धारणके लिये देखते हैं। मेष राशि विषम राशि है। अतः उसी राशिकी सप्तमांश गणना होगी। ५वाँ सप्तमांश २१-५- ४२ अंशपर समाप्त होता है। अतः छठा सप्तमांश कन्याराशिका होगा, जो २५-४२-५१ तकका है। अतः सप्तमांश कुण्डली लग्न कन्या राशिका होगा, कन्याराशिका अंक ६ है। अतः कुण्डली लग्न ६ से प्रारम्भ होगा। इसी प्रकार प्रत्येक ग्रहके स्पष्ट मान देखकर विचारकर ग्रह- निर्धारणपर सप्तमांश कुण्डली बनायी जायगी।
(घ) नवमांश कुण्डली -
एक राशिके नौवें भागको नवमांश कहते हैं। ३ अंश २० कलाका एक नवमांश होता है। एक राशिमें नौ राशियोंके नवांश होते हैं। नवांश-बोधक-चक्र पंचांगमें लिखे रहते हैं। ग्रहस्पष्टतालिकाका नवांश- बोधक-चक्रसे मिलान करके नवांश कुण्डली तैयार की जा सकती है।
चरराशिका प्रथम नवांश, स्थिर राशिका पाँचवाँ नवांश, द्विस्वभाव राशिका अन्तिम नवांश वर्गोत्तम कहलाता है।
सर्वप्रथम ग्रहस्पष्टतालिकासे लग्न निर्धारित करें। उदाहरण - लग्न ०। २३ । २५ । २७ का है। प्रथम नवांश ३ अंश २० कलाका है, अतः मेष नवांश बोधक चक्रमें देखा, मेष राशिमें ७वाँ नवांश २३ अंश २० कलातक है। हमारी लग्न संख्या २३-२५ है । अतः आगेका ८ वाँ नवांश २६ अंश ४० कलातक है। अतः लग्नकी राशि वृश्चिक हुई और नवांश कुण्डलीमें लग्न संख्या ८ से शुरू होगी। ऐसे ही अन्य ग्रहोंको बोधक चक्रसे मिलानकर स्थापित कर ले।
(ङ) दशमांश कुण्डली -
एक राशिमें दस दशमांश निर्धारित करनेपर एक दशमांश ३ अंशका बनता है। दशमांश गणना विषम राशियोंके उसी राशिसे गणना की जाती है। सम राशियोंमें उस राशिके नवम राशिसे दशमांशकी गणना की जाती है। यह दशमांश कुण्डली बनानेका नियम है।
लग्न स्पष्ट जिस राशि दशमांशमें हो,वही दशमांश कुण्डलीका लग्न रहेगा और ग्रहस्पष्टतालिकासे सभी ग्रहोंको जिस दशमांशमें गणना आये, उसीमें स्थापितकर कुण्डली बनायी जाती है।
(च) द्वादशांश कुण्डली -
एक राशिका द्वादशांश २ अंश ३० कलाका बनता है। द्वादशांश गणना अपनी राशिसे ही की जाती है। तात्पर्य यह है कि जिस राशिमें द्वादशांश ज्ञात करना है, उसमें प्रथम द्वादशांश उसी राशिका, दूसरा आगेवाली राशिका रहेगा। इस प्रकार से १२ राशियोंमें प्रथम द्वादशांश उसी राशिके होंगे। लग्न स्पष्टके द्वादशांश निकालकर द्वादशांश कुण्डली बनाकर फिर ग्रहस्पष्टानुसार द्वादशांश बनाते हुए ग्रह स्थापित करे।
(छ) षोडशांश कुण्डली -
एक राशिके १६वें अंशको षोडशांश कहते हैं। एक षोडशांश १ अंश ५२ कला ३० विकलाका होता है।
षोडशांशकी गणना चरराशियोंमें मेष राशिसे, स्थिर राशियोंमें सिंह राशिसे और द्विस्वभाव राशियों में धनुराशिसे की जाती है। ग्रहस्पष्टतालिकामें प्रथम यह देखे कि लग्न तथा ग्रह किस संज्ञाके हैं। चरराशि संज्ञा है, स्थिरराशि संज्ञा है या द्विस्वभावराशि संज्ञा है, फिर षोडशांशबोधक चक्रसे मिलानकर कुण्डली बनाये।
(ज) त्रिंशांश - कुण्डली -
विषम राशियों में प्रथम ५ अंश मंगलका, दूसरा ५ अंश शनिका, तीसरा ८ अंश धनुराशि बृहस्पतिका, चौथा ७ अंश मिथुन राशि बुधका और पाँचवाँ ५ अंश तुलाराशिका होता है।
सम राशियोंमें प्रथम ५ अंश वृषराशि शुक्रका, दूसरा ७ अंश कन्याराशि बुधका, तीसरा ८ अंश मीनराशि बृहस्पतिका, चौथा ५ अंश मकरराशि शनिका और पाँचवाँ ५ अंश वृश्चिकराशि मंगलका त्रिंशांश होता है।
(१०) दशा-निर्धारण
जन्मकुण्डली तैयार होनेके बाद दशा-कालका विचार किया जाता है, दशाएँ तीन प्रकारकी देखनेमें आयी हैं-विंशोत्तरी दशा, अष्टोत्तरीदशा, योगिनीदशा । प्रधानरूपसे विंशोत्तरी दशा प्रचलनमें देखी जाती है मारकेशका निर्णय भी विंशोत्तरीदशासे ही किया जाता है।
विंशोत्तरी दशा बनानेकी विधि
विंशोत्तरी दशाका मान १२० वर्ष माना गया है, जिसका विभाजन इस प्रकारसे किया गया है। सूर्यदशा ६ वर्ष, चन्द्रदशा १० वर्ष, मंगलदशा ७ वर्ष, राहुदशा १८ वर्ष, बृहस्पतिदशा १६ वर्ष, शनिदशा १९ वर्ष, बुधदशा १७ वर्ष, केतुदशा ७ वर्ष और शुक्रदशा २० वर्षकी मानी गयी है। जन्म नक्षत्रानुसार ग्रहोंकी दशा कृत्तिका नक्षत्रसे प्रारम्भ होती है।
एक सुगम विधि यह भी है— कृत्तिका नक्षत्रसे जन्म नक्षत्रतक गिनकर संख्या ज्ञात करे, उसमें ९ का भाग दे। यदि शेष एक बचा तो सूर्यदशा, २ शेष तो चन्द्रदशा, ३ शेष तो मंगलदशा, ४ शेष तो राहुदशा, ५ शेष तो बृहस्पति- दशा, ६ शेष तो शनिदशा, ७ शेष तो बुधदशा, ८ शेष तो केतुदशा और शून्य शेष तो शुक्रदशा मानी जाती है।
भुक्त और भोग्य दशा
जिस ग्रहकी जन्म नक्षत्रानुसार गणनाकर मान्य हुई, उसमेंसे कितनी दशा भुक्त हो चुकी है और शेष दशा कितनी भोग्य रहेगी, इसकी जाँच करनेके लिये भयात-भभोगको पलात्मक बना ले। जिस ग्रहकी दशा है, उसके वर्षमानको पलात्मक भयातसे गुणाकर पलात्मक भभोगका भाग दे दे, जो भागफल आये, उसे वर्ष माने, शेषको १२ से गुणाकर पलात्मक भभोगका भाग दे, जो भागफल आये, उसे मास माने, शेषमें ३० से गुणाकर पलात्मक भभोगका भाग दे, जो भागफल आये, उसे दिन माने, जो शेष रहे, उसे घटी माने।
ये वर्ष-मास-दिन दशाके भुक्त वर्षमान रहेंगे। इनको ग्रह-दशाके वर्षमानमेंसे घटा दे, जो वर्षमान, दिन शेष बचे; वह भोग्य दशा रहेगी। इस प्रकारसे विंशोत्तरी दशा-चक्र बना ले। प्रत्येक ग्रहकी महादशामें नौओं ग्रह अपने निश्चित क्रमसे भोग करते हैं, जो अन्तर्दशा कहलाती है, उसका भी परिगणनकर जन्मपत्रीमें लिख दे। सुविधाके लिये यहाँ ग्रहोंकी महादशा एवं अन्तर्दशाका चक्र दिया जा रहा है। इससे आगेका काम फलादेशका है। जन्म कुण्डली निर्माण यहाँतक माना गया है।
कुछ विद्वान् चन्द्र-कुण्डली, सुदर्शन कुण्डली भी बनाते हैं, उनका स्वरूप जन्मकुण्डली से ही बन जाता है। जन्मकुण्डली में चन्द्रमा जिस राशि भावमें है, उसे लग्न मानकर शेष कुण्डली यथावत् रखी जाती है।
सुदर्शन-चक्रमें तीन कुण्डली साथ चलती है- प्रथम चक्र सूर्य लग्न मानकर तैयार करते हैं। जन्मकुण्डली में सूर्य जिस राशिमें है, उसे सूर्य लग्न मानकर शेष कुण्डली चक्र यथावत् रखते हैं। मध्य चक्रमें चन्द्रमा जिस राशिमें हैं, उसे चन्द्र लग्न मानकर शेष ग्रह चक्र जन्म लग्नानुसार लिख देते हैं। तृतीय वृत्तमें जन्म-लग्न कुण्डली यथावत् रखी जाती है। इसको सुदर्शन-चक्कं कुण्डली कहा जाता है। सुदर्शनचक्र कुण्डलीका फलादेश तीनों लग्नोंसे तुलना करते हुए देखा जाता है।
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