त्वष्टा चतुर शिल्पी थे। वास्तु निर्माणकार थे। वास्तुकला के आचार्य थे। इन्द्र के लिए उन्होंने वज्र बनाया था। विश्व प्रसिद्ध तीन शिल्पी ऋभु बिम्वान तथा वाज उनके शिष्य थे। त्वष्टा मंजु है। सुपाणि हैं। तक्षण कलाकार हैं। लौह परशु धारण करते हैं। उनके रथ में दो अश्व योजित होते हैं। अत्यन्त भास्वर हैं। जटिल रचना के विशेषज्ञ हैं। ब्रह्मणास्पति के लौह-कुठार को तीक्ष्ण करते हैं। आयस पाश बनाते हैं। श्रेष्ठ पात्र बनाते हैं। देवताओं के निमित्त शोभन पात्रों का निर्माण किया था । चमस, सम्पत्तिपूर्ण कलशा, सोम पात्र, उनके विलक्षण शिल्पकला के नमूने थे । उन्होंने नवीन चमस पात्र बनाया। परन्तु उनके शिष्य ऋभु ने चार चमस पात्रों की रचना कर दी। उनका चमस ही वर्ष है। रात्रि का आकाश उनके चमस पात्र तुल्य हैं ।
त्वष्टा निर्माता है। सार्वभौम के पिता कहे जाते हैं। उन्होंने विविध प्राणियों को उत्पन्न किया है । सोम के अभिभावक हैं। त्वष्टा के ब्रह्मणस्पति पुत्र हैं। वायु उनका जामातृ है। देव भी उनकी सन्तान हैं। उनकी दो सन्ताने थीं। सरण्यू उनकी कन्या थी । त्रिशिरा पुत्र थे। सरण्यू युवती हुई । त्वष्टा ने कन्या के लिए वर खोजना आरम्भ किया। पिता की चिन्ता सुपात्र अन्वेषण निमित्त सावन की बेल की तरह बढती गयी। विश्व पर्यनत ढूढा । उन्हें विवस्वत जैसा उपयुक्त वर दूसरा दिखाई नहीं दिया।
त्वष्टा ने विवस्वत के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा। विवस्वत स्वयं आदित्य हैं। सूर्य हैं। वह रात-दिन प्रकट करते हैं। प्रकाश पुंज उनसे प्रकट होता है। विवस्वत तथा सरयू में अलौकिक प्रेम था। सुखमय समय बीतता गया । दाम्पत्य जीवन आदर्श था । विवस्वत को सरण्यू के गर्भ से दो जुडवां सन्तानों ने जन्म ग्रहण किया। उनका नाम यम और यमी था । यम ने अपनी बहन से पूर्व पृथ्वी का स्पर्श किया था। अतएव यमज होने पर भी ज्येष्ठ यम हुए। विश्व की वे प्रथम सन्तान थे । परलोक पहुँचने पर यम वहाँ के राजा हुए। वैवस्वत यम मृतकों को शरण देते हैं। पितृ लोक के पालक हैं।
तीन लोकों में यम त्रितीय अर्थात सर्वश्रेष्ठ यम-लोक तथा सवितृ शेष दो लोकों के स्वामी हैं। यम अपने लोक में वीणा की संगीत स्वर लहरियों से घिरे रहते हैं। उन्हें वीणा वादन प्रिय है। यम को घृत प्रिय है। अतएव उन्हे घृत अर्पण किया जाता है। यम ने मृत्यु को अगीकार किया था । स्वतः अपने शरीर का त्याग किया था । यम का प्रशस्त पथ मृत्यु है। यम के दूत उलूक तथा कपोत पक्षी हैं।
दिवंगत होने पर परलोक में मृत व्यक्ति का आगमन होता है। वहाँ वह यम तथा वरुण का दर्शन करता है। यम के अश्वों के स्वर्ण नेत्र और लौह खुर हैं। वह पितरों के आवास का प्रबन्ध करते हैं। उन्हें विश्राम देते हैं और उनकी बहन यमी जलीय दिवांगना है।
सरण्यू को सूर्य का प्रखर तेल उत्तरोत्तर असह्य होने लगा। सूर्य का वेग सहन करने में वह असमर्थ होने लगी। भगवान भुवन भास्कर विवस्वत एक दिन अनुपस्थित थे। उनकी अनुपस्थिति का सरण्यू ने लाभ उठाया। ने
सरयू नें अपनें सदृश एक रूपवती छाया स्त्री की सृष्टि विवस्वत के परोक्ष में की । उसे आदेश दिया दिया। सूर्य के साथ पत्नीवत् तथा उसकी सन्तानो के साथ मतृवत् व्यवहार करे।
प्रतिमा सरण्यू की छाया मात्र थी। उसमें सरण्यू के रूप, रंग, आकार, वाणी आदि सब कुछ समावेश था। उस छाया नारी को देखकर सन्देह नही हो सकता था, वह मूल सरण्यू नही है। सरण्यू ने उसे सवर्णा किंवा स्थानापन्न स्त्री बनाया।
सरण्यू की बाते सूर्य को मालूम नहीं हुई। उसकी सन्तानों को भी पता नहीं चला। अनन्तर सरण्यू ने अश्वी का रूप धारण किया। वह भूमण्डल में विचरण करने लगी ।
सूर्य ने छाया को सरयू समझा । किंचित मात्र सन्देह नहीं हुआ। सरण्यू उनका परित्याग कर चली गई है। सूर्य ने छाया के साथ अनभिज्ञतावश, पत्नीवत व्यवहार किया। सूर्य को छाया से मनु पुत्र हुए। उनकी संज्ञा वैवस्वत मनु नाम से हुई। वही मानवों के आदि पुरुष हैं। अतएव मनुष्यों को विवस्वान आदित्य की सन्तान कहा जाने लगा । मनु ने अग्नि प्रज्वलित की। सप्त होताओं के साथ देवताओं के हवन योग्य सामग्री एकत्रित की। मानव का कल्याण, उपकार आदि हेतु मनु ने विहित यज्ञ की सरल परम्परा स्थापित की। यज्ञ-प्रथा का आरम्भ मनु नें किया था। यदि यम अमर हैं, परलोकवासी हैं, तो उनके विमातृ भ्राता मनु मरणधर्मा प्राणी है। मरणधर्मियों के राजा हैं। पृथ्वी पर उत्पन्न होने वाले प्रथम राजा मनु हैं। मनु जगत के प्रथम राजर्षि हैं।
"यम " पिता विवस्वत ने यम से सस्नेह पूछा "तुम उदास क्यों रहते हो?" यम पिता के चरण की तरफ देखने लगे। विवस्वत ने पुन पूछा, " तुम्हारी माता के प्रेम मे कुछ अन्तर आ गया है क्या?" यम की आँखे भर आईं। पिता ने कें पुत्र भाव समझा। हृदय का
उन्होने पूछा "माता के व्यवहार में अन्तर आ गया है यम?"
"पिताजी माता का प्रेम मनु पर अधिक है।" पिता गम्भीर हो गये। यम चुपचाप उद्यान मे चला गया।
विवस्वत अपनी पत्नी की दिनचर्या पर सतर्क दृष्टि रखने लगे। उसके व्यवहार का अध्ययन आरम्भ किया। उन्हें प्रतिभासित होने लगा। वह पूर्व की सरण्यू नही रह गयी थी। उसके विचारों में, उसके व्यवहारों में अन्तर आ गया है। यम ने यमी के प्रति उस छाया सरण्यू में वह वात्सल्य नहीं था, जो मनु के साथ प्रकट करती थी।
एक दिन छाया सरण्यू यम तथा यमी पर अकारण रूष्ट हो रही थी। मनु के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार देखकर विवस्वत से नही रहा गया। उन्होने पूछा सरण्यू! तुम अनायास यम और यमी पर रूष्ट क्यो हो रही हो? तुमहारा व्यवहार विमाता सदृश्य लगता हैं"
"क्या तीनों तेरी सन्तान नहीं हैं?"
छाया सरण्यू नीरव थी । "स्त्री" विवस्वत छाया के अत्यन्त समीप पहुँचकर तीक्ष्ण स्वर में बोले उत्तर क्यो नही देती ?"
छाया के प्रति प्रत्युत्तर का साहस नही रह गया था ।
"सुनती हो। मै कुछ प्रश्न पूछ रहा हूँ?" छाया का शरीर कटि प्रदेश पर झुक गया। "तुम सरण्यू!"
छाया रो उठी। " बोलो। आवेश में विवस्वत ने उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा, "तुम कौन हो? तुम सरण्यू नही हो सकती।"
छाया रोने लगी। मनु रोने लगा । यम और यमी पिता से लिपट गये। उनके कोधित मुख की ओर भय विहवल दृष्टि से देखने लगे। विवस्वत ने छाया का हाथ छोड़ दिया। हाथ भूमि पर गिर पड़ा। वह दोनो हाथों से मुख छिपा कर रोने लगी।
छाया ने भय से विवस्वत का पद पकड़ लिया। उसका कपोल अश्रुधारा से तरल हो गया था। भूमि पर पडे हाथ से उसने मुख छिपा लिया। उसके इस दयनीय रूप को विवस्वत ने देखा उनको दया आई उन्होनें मन्द स्वर में पूछा "निर्भय होकर बोलो सरण्यू कहाँ है? तुम कौन हो ?"
छाया भूमि की ओर देखती अपने अंचल से आँसू पोंछती बोली:
मैं उनकी छाया हूँ।"
"और वह?"
"आपकी अनुपस्थिति में वह मुझे यहाँ छोड़कर चली गई।"
मनु माँ के गले से लिपट गया। पिता को क्रोधित रूप देखकर घबरागया था।
"अश्विनी बन कर मृत्युलोक में हैं।"
"ओह और यह मनु"
विवस्वत की छाया पर से दृष्टि हटी। अपने अविज्ञान के फल मनु की ओर देखने लगे।
अकस्मात उसे एक अश्वी विचरण करती दिखाई दी। अश्वी ने सलक्षण अश्व देखा। एक-दूसरे को दोनो ने पहचान लिया। दो बिछुडे मिले। पति-पत्नी मिले। पत्नी ने पति से मैथुन की आकांक्षा की। काम वेग उत्पन्न हुआ। विवस्वत ने सरण्यू अश्वी पर सवेग आरोहण किया। अश्व का शुक्र उद्दीपन के कारण स्खलित होकर भूमि पर गिर गया। सन्तानेच्छु अश्वी ने उस तेज को सूघा उसके सूघते ही, उसकी नासिका से स्वर्ण - काति-पुज, मधु-वर्ण, दो दिव्य पुरूषों ने जन्म ग्रहण किया। उनकी सज्ञा नासत्य और दस्र हो गयी। उन्हे देखते ही अश्व विवस्वत ने प्रसन्न होकर कहा:
"प्रिये।" पुत्रो की ओर वात्सल्य भाव से देखते हुए विवस्वत ने कहा, "देवताओं के चिकित्सक होगे। ये आदि वैद्य हैं।"
सरण्यू प्रेमपूर्वक अश्विनीकुमारों को अंक में लेने लगी। विवस्वत ने सरण्यू का पत्नी भाव से देखते हुए स्नेह से कहा " सरयू तुमने प्रथम मृत्यु प्राप्त प्राणी यम को जन्म दिया। तत्पश्चात मृत्यु और व्याधियो से रक्षा करने वाले प्रथम वैद्यों को जन्म दिया है। तुम दोनो की जननी हुई।
"और मेरी छाया " सरण्यू मुस्कराई।
'उसने मरणधर्मा मनु को जन्म दिया । "
"चलो लोक परलोक दोनों अपने हैं।"
अश्व विवस्वत्, अश्वी सरण्यू और अश्वनीकुमार सब प्रसन्न हो गये ।
नोट-
विवस्वत द्वारा यम-यमी की तथा अश्विनी कुमारो की उत्पत्ति सरयू के गर्भ से हुई थी। सरण्यू की छाया से मन अर्थात मानव के आदि पुरूष हुए थे। मनु से मरणशील प्राणी हुए सरण्यू से देवता यम तथा अश्विनीकुमार हुए। सूर्य ही मयों और अमयों दोनों के पिता हैं। सरण्यू तथा उसकी छाया उनकी माता है। इस प्रथा द्वारा देव तथा मनुष्यों के एक ही स्रोत को स्वीकार करते हुए यह दिखाने का प्रयास किया गया है कि मनुष्य देवता की छाया है। सूर्य ने यदि सरण्यू से यम को उत्पन्न किया तो उसी से ही यम द्वारा आक्रान्त प्राणियों की रक्षा करने वाले अश्विनों को भी उत्पन्न किया । अर्थात प्राणियों का मूल स्रोत सूर्य से आरम्भ होता है।
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