शुक्र ग्रह परिचय
उत्पत्ति - भोजकर्कट देश में ।
गोत्र - भार्गव।
जाति - ब्राह्मण ।
गुरु - दैत्यों के।
ज्ञाता - संजीवनी विद्या के ।
शुभाशुभत्व - शुभ ग्रह।
भोग काल - एक मास - 30 दिन।
बीज मंत्र
ॐ शुं शुक्राय नमः / ॐ ह्रीं श्रीं शुक्राय नमः / ॐ शुक्राय नमः
तांत्रिक मंत्र
ॐ द्राँ द्रीं द्रौं सः शुक्राय नमः।
वैदिक मंत्र
ॐ अन्नात्परिस्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपिवत्क्षत्रं पयः सोमं प्रजापतिः । ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपान गुंग शुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु ।।
पुराणोक्त मंत्र
ॐ हिमकुन्द मृणालाभं दैत्यानां परमं गुरुम ।
सर्वशास्त्र प्रवक्तारं भार्गवं प्रणमाम्यहम ॥
जप संख्या
16000 कलयुगे चतुर्थगुणो अर्थात 64000 + दशांश हवन - 6400 + दशांश तर्पण - 640 + दशांश मार्जन 64 = 71104
जप समय - ब्रह्मवेला (सुर्योदय)
हवन के लिए समिधा - गूलर
रत्न - 1 रत्ती हीरा
शुक्र ग्रह के लिए दान वस्तु
सुवर्ण, चाँदी, हीरा, चावल, घी, हल्दी, नमक, सफेदपुष्प, सफेदवस्त्र, सफेद घोड़ा।
शुक्र कवचम्
विनियोग - अस्य श्री शुक्र कवच स्तोत्र मन्त्रस्य । भारद्वाज ऋषिः । अनुष्टुप् छन्दः । शुक्रो देवता । शुक्रप्रीत्यर्थे पाठे विनियोगः ।
मृणालकुन्देन्दुपयोजसुप्रभं
पीताम्बरं प्रभृतमक्षमालिनम् ।
समस्तशास्त्रार्थनिधिं महांतं
ध्यायेत्कविं वान्छितमर्थसिद्धये ॥ १॥
ॐ शिरो मे भार्गवः पातु भालं पातु ग्रहाधिपः ।
नेत्रे दैत्यबृहस्पति: पातु श्रोतो मे चन्दनद्युतिः ॥२॥
पातु मे नासिकां काव्यो वदनं दैत्यवन्दितः ।
वचनं चोशना: पातु कण्ठं श्रीकण्ठभक्तिमान् ॥३॥
तेजोनिधि: पातु कुक्षिं पातु मनोव्रजः ।
नाभिं भृगुसुतः पातु मध्यं पातु महीप्रियः ॥४॥
कटिं मे पातु विश्वात्मा उरूं मे सुरपूजितः ।
जानु जाड्यहरः पातु जंघे ज्ञानवतां वरः ॥५॥
गुल्फो गुणनिधिः पातु पादौ वराम्बरः ।
सर्वाण्यंगानि मे पातु स्वर्णमालापरिष्कृतः ॥६॥
य इदं कवचं दिव्यं पठति श्रद्धयान्वितः ।
न तस्य जायते पीड़ा भार्गवस्य प्रसादतः ॥७॥
॥ इति श्रीब्रह्माण्डपुराणे श्रीशुक्रकवचस्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥
शुक्र स्तोत्रम्
नमस्ते भार्गव श्रेष्ठ देव दानव पूजितः ।
वृष्टिरोधप्रकर्त्रे च वृष्टिकर्त्रे नमो नमः ॥१॥
देवयानीपितस्तुभ्यं वेदवेदांगपारगः ।
परेण तपसा शुद्धः शंकरो लोकशंकरः ॥२॥
प्राप्तो विद्यां जीवनाख्यां तस्मै शुक्रात्मने नमः ।
नमस्तस्मै भगवते भृगुपुत्राय वेधसे ॥३॥
तारामण्डलमध्यस्थ स्वभासा भासिताम्बरः ।
यस्योदये जगत्सर्वं मंगलार्हं भवेदिह ॥४॥
अस्तं याते ह्यरिष्टं स्यात्तस्मै मंगलरूपिणे ।
त्रिपुरावासिनो दैत्यान् शिवबाणप्रपीडितान् ॥५॥
विद्यया जीवयच्छुक्रो नमस्ते भृगुनन्दन ।
ययातिगुरवे तुभ्यं नमस्ते कविनन्दन ॥६॥
बलिराज्यप्रदो जीवस्तस्मै जीवात्मने नमः ।
भार्गवाय नमस्तुभ्यं पूर्वं गीर्वाणवन्दितम् ॥७॥
पुत्रा यो विद्यां प्रादात्तस्मै नमोनमः ।
नमः शुक्राय काव्याय भृगुपुत्राय धीमहि ॥ ८ ॥
नमः कारणरूपाय नमस्ते कारणात्मने ।
स्तवराजमिदं पुण्यं भार्गवस्य महात्मनः॥९॥
यः पठेच्छुणुयाद्वापि लभते वाँछितफलम् ।
पुत्रकामो लभेत्पुत्रान् श्रीकामो लभते श्रियम् ॥१०॥
राज्यकामो लभेद्राज्यं स्त्रीकामः स्त्रियमुत्तमाम् ।
भृगुवारे प्रयत्नेन पठितव्यं सुसमाहितैः ॥११॥
अन्यवारे तु होरायां पूजयेद्भृगुनन्दनम् ।
रोगार्तो मुच्यते रोगात् भयार्तो मुच्यते भयात् ॥१२॥
यद्यत्प्रार्थयते वस्तु तत्तत्प्राप्नोति सर्वदा ।
प्रात: काले प्रकर्तव्या भृगुपूजा प्रयत्नतः ॥१३॥
सर्वपापविनिर्मुक्तः प्राप्नुयाच्छिवसन्निधिः॥१४॥
॥ इति श्री स्कन्दपुराणे शुक्रस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
शुक्र स्तोत्रम्
विनियोग -
अस्य शुक्र स्तोत्र मन्त्रस्य । प्रजापति ऋषिः । अनुष्टुप छन्दः । शुक्रो देवता । शुक्रप्रीत्यर्थे पाठे विनियोगः ।
शुक्रः काव्यः शुक्ररेताः शुक्लांबरधरः सुधीः ।
हिमाभः कुन्दधवलः शुभ्रांशुः शुक्लभूषणः ॥ १॥
नीतिज्ञो नीतिकृन्नीतिमार्गगामी ग्रहाधिपः ।
उशना वेदवेदांगपारगः कविरात्मवित् ॥ २॥
भार्गवः करुणासिन्धुः ज्ञानगम्यः सुतप्रदः ।
शुक्रस्यैतानि नामानि शुक्रं स्मृत्वा तु यः पठेत् ॥३॥
आयुर्धनं सुखं पुत्रान् लक्ष्मीं वसतिमुत्तमाम् ।
विद्यां चैव स्वयं तस्मै शुक्रस्तुष्टो ददाति हि ॥४॥
॥ इति श्री ब्रह्माण्ड पुराणे शुक्रस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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